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नन्दी भवति" इस पूर्ववाक्य से ही अन्य किसी का निषेध करते हुए, भगवत्प्राप्ति में आनन्दहेतुता की प्राप्ति में भी अन्यथा निषेध करते हुए उसी का पुनः उल्लेख किया गया उससे भी उस रसस्वरूप की जीवन हेतुता निशिचित होती है । सामान्य विशेष रूप से दो बार उसका उल्लेख किया है जो कि उसी के विरह सामयिक रूप का द्योतक है, यही अभिप्राय श्रुति से निश्चित होता है। बिना मरण हेतु की उपस्थिति के जीवन हेतुता नहीं कह सकते थे। उस मरणासन्न अवस्था में पड़े हुए जीव को कौन दूसरा पुरुष बचा सकता है, यही बात " वा " पद से कही गई है ।
स्मर्यते च |४ |२| १४॥
भगवद्भावस्य मरणहेतुत्वं तेनैव च जीवनं तस्य ब्रह्मादि दुरापत्वं च श्री भागवते स्मर्यंते – “तामन्मनस्कामत्प्राणा मदर्थैत्यक्तदैहिकाः ये व्यक्त लोक धर्माश्च मदर्थे तान् विभर्म्यहम् " इत्युपक्रम्य " - धारयन्त्यथकृच्छ्रेण प्रायः प्राणान् कथंचन् " इत्यादि श्री प्रभुव चनं श्रीमदुद्धववचनं च - " एताः परं तनुभृतो भुवि गोपवध्वी गोविन्द एव निखिलात्मनि रूढभावाः, वांच्छन्ति यं भवभियोमुनयो वयं च कि ब्रह्म जन्म निरनन्तकथारसस्य" इत्यादि । तेन भगवत एव जीवन हेतुत्वं भावस्य च परमपुरुषार्थत्वं दुरापत्वं च स्फुटेमवगम्यते ।
भगवद्भाव की मरण हेतुता, उसी का जीवन और ब्रह्म आदि का दुरापत्व, श्री भागवत में भी कहा गया है - "उन गोपियों ने अपना मन और प्राण मुझ में ही लगा रक्खा है, मेरे लिए जो शरीर को भी छोड़े हुए है तथा जिन्होंने लौकिक धर्मों का भी मेरे लिए त्याग कर दिया है, उनका पालन मैं करता हूँ" ऐसा उपक्रम करते हुए "वे गोपियाँ किसी प्रकार बड़े कष्ट से प्राणों को धारण कर रही हैं" इत्यादि प्रभु वचन है, उद्धव भी कहते हैं- " समस्त जगत के आत्मा गोविन्द में ही अपने भावों को टिकाए हुए ये गोपवधूटियाँ अपने शरीरों को धारण किए हुए हैं, भवभीति से आतंकित मुनि लोग और हम इन्हीं की कृपा चाहते हैं, ब्राह्मण शरीर में जन्म लेने से और अनन्त कथारस में डूबने में क्या रक्खा है ?" इन वचनों से, भगवान की जीवन हेतुता, भगवद्भाव की परम पुरुषार्थता स्पष्ट ज्ञात होती है ।
तानि परे तथाह्याह |४| २|१५||
ननु हृदि वहिश्च रसात्मक भगवत्प्राकट्यं तद् दर्शनजनितो विरहभावस्तज्जनितस्तापस्तेन मरणोपस्थितिस्तन्निवर्त्तनं तदोत्कट्यं तदा प्राकट्यं ततः
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