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(५८८ ) तदन्यः को वा प्रकर्षेण दर्शनस्पर्शाश्लेषभाषणादिभिः स्वरूपानन्ददाने नान्यात् पूर्वतापनिवृत्ति पूर्वकमानन्दपूर्ण कुर्यादित्यर्थः । रसं ह्य'वायंलब्ध्वाऽनंदीभवतीति पूर्ववाक्येनैवान्यव्यवच्छेदपूर्वकं भगवत्प्राप्तेरानन्दहेतुत्वप्राप्तावपि यत्पुनराह तत्रापि ज्यतिरेक मुखेन, तत्रापि जीवनहेतुत्वं तदपि सामान्यविशेषाभ्यां वारद्वयं तेन विरह सामयिकोक्तरूप एवार्थः श्रुतेरभिप्रेत इतिनिश्चीयते । अन्यथा मरणहेत्वनुपस्थिती जीवनहेतुत्वं न वदेत् इत्युक्तम् । तदवस्थापन्नः को वा पुरुषो जोवेदिति वार्थः ।
तैत्तरीय-उपनिषद् की एक शाखा में, भगवत्स्वरूपलाभ के बाद दुःख निवृत्ति का सुस्पष्ट उल्लेख मिलता है-"वह रस स्वरूप है उसको पाकर भक्त आनंदित हो जाता है, यदि आनंद स्वरूप आकाश की तरह व्यापक परमात्मा न होता तो, कौन जीवित रह सकता और कौन प्राणों की क्रिया कर सकता, निःसंदेह यह परमात्मा ही सबको आनंद प्रदान करता है" इसमें रसात्मक भगवत्स्वरूप को प्राप्ति होने पर आनंद की प्राप्ति बतलाकर उसे ही जीवन और परमानन्द का हेतु बतलाया गया है। मरण हेतु को उपस्थिति के अभाव में, जीवन हेतुत्व की बात नहीं कह सकते भगवत् स्वरूप रस संयोग और विप्रलम्भ दोनों भावों से ही पूर्ण होता है एक से उसकी अनुभूति नहीं होती। विरह के ताप से अत्यंत पीड़ित जीव को प्राणास्थिति भी संभव नहीं थी यदि रसात्मक भगवान हृदय में न होते, इसी आशय "को ह्येवान्यात्" से दिखलाया गया है। यदि यह हृदय में स्फुरित आकाश स्वरूप भगवान न होते तो दूसरा जिलाने में कौन समर्थ का अर्थात् कोई भी नहीं था। उस प्रकार के भगवत्स्वरूप के अतिरिक्त जीवन कोई दूसरी वस्तु नहीं है, यह बतलाने के लिए हो सामान्य पद का प्रयोग किया गया है । ब्रह्मानन्द से अधिक पूर्णानन्द के विरह से मरणासन्न स्थिति का निवारण का सामर्थ्य उसके समान और किसी में नहीं है, यही भाव "हि" शब्द से दिखलाया गया है उस प्रकार का जीवन संपादन प्रभु में ही है, यह बात “एव" पद से बतलाई गई है। तापात्मक होते हुए भी वह आनंदात्मक है, यह बतलाने के लिए आनंद पद का प्रयोग किया गया है। विरहावस्था में जो प्रलाप गुणगान आदि होते हैं वे भी, उस आनंदात्मक के हो धर्म हैं, नील मेघ की तरह श्यामवर्ण वाला प्रभु बड़ी कठिनता से ही हृदय से जाता है, उसे हृदय से नहीं निकाल सकते, यह दिखलाने के लिए उस आनन्दस्वरूप को आकाश रूप बतलाया गया है । विरह के बाद प्रकट होकर दूसरा कौन है जो, दर्शन स्पर्श आश्लेष भाषण आदि से स्वरूपानन्द प्रदान कर पूर्वताप निवृत्त कर आनन्दपूर्ण कर देता है, यही उक्त वाक्य का तात्पर्य है। "रसोवायलब्ध्वा