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रहती विरही की दशा में तो अत्यन्त असा दुःख होने से समस्त भाव समाप्त हो जाते हैं अतः उपदेश देना कठिन होता है तथा संगम की दशा में प्रकट भगवत् • स्वरूप के आनंद में निमग्न होने से किसी भी प्रकार का उपदेश नहीं हो पाता, 'भगवान के समक्ष कुछ भी कहना संभव नहीं होता ।
ननु 'रसो वै सः संह्येवायं लब्ध्वाऽनन्दी भवति" इत्युपक्रम्य " एषह्येवानन्दयति" इति श्रुतेरुक्तरूपानन्द प्राप्तौ दुःसहविरह तापोऽशक्यवचनः । आनन्द तिरोधान एव तत्संभवात् । तद् हेतोरसंभवात्, संभवे तु तत्प्राप्तिरेव न स्यादिति प्राप्ते, उत्तरं पठति
" वह रस स्वरूप है, उस रस की अनुभूति कर जीव आनन्द प्राप्त करता "है" ऐसा उपक्रम करके " इसी से आनन्द प्राप्त करता है" इत्यादि श्रुति तो · आनन्द प्राप्ति में दुःसह विरहताप की अशक्यता बतलाती है । आनन्द के तिरोहित होने पर ही विरह ताप हो सकता है, सो तो बतलाया नहीं गया, यदि वैसा हो भी तो, उस आनन्द ब्रह्म की प्राप्ति संभव उत्तर देते हैं—
नहीं है, इस संशय का
अस्यैव चोपपत्त रूष्मा (४।२।११।
. . आनन्दात्मक रसात्मकस्यास्यैव भगवत एव धर्म ऊष्मा विरहताप इत्यर्थः । विरोध परिहारायाह — उपपत्तेरिति । इदमुक्तं भवति -- भगवद् बिरहस्य -सर्वसाधारणत्वेऽपि स्थायिभावात्मकरसरूप भगवत्प्रादुर्भावो यस्य हृदि भवति, तस्यैव तदप्राप्तिजस्तापस्तदनन्तरं नियमस्तत्प्राप्तिश्च भवति, न त्वतथाभूतस्येस्यन्वयव्यतिरेकाभ्यामुत्तरसस्यैवैष धर्म इति निश्चीयते । तस्य वस्तुन एव तथावात् स तापोऽपि रसात्मक एव ।
आनन्दात्मक रसात्मक भगवान का ही धर्म ऊष्मा अर्थात् विरहताप भी है । भगवद् विरह, सामान्य विरह की तरह ही होता है फिर भी जिसके हृदय में, स्थायिभावात्मक रसरूप भगवान का प्रादुर्भाव हो जाता है, उसी हृदय में उस प्रभु के तिरोहित होने का ताप भी उसके बाद होना स्वाभाविक ही है, किसी अन्य वस्तु के तिरोधान जन्यताप तो होता नहीं, जो वस्तु प्रकट थी उसको ही अप्राप्ति होती है अतः ताप भी उक्त रस का ही धर्म निश्चित होता है, वह वस्तु ही उस रूप में हो जाती है अतः वह ताप भी रसात्मक ही है [अर्थात् गार रस की तरह संयोग और विरह, भक्तिरस के भी दो पहलू हैं