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( ५८४ ) रुद्र गीत में आता है-"जो नारायण परायण हैं वे किसी से भयभीत नहीं होते, वे स्वर्ग अपवर्ग और नर्क सभी समान मानते हैं।" भगवद्गीता में भी जैसे-"देवताओं के उपासक देवताओं को प्राप्त करते हैं, मेरे भक्त मुझे प्राप्त करते हैं ।" मुक्ति की दृष्टि से मर्यादामार्गीय भक्त को पुष्ट भक्त की अपेक्षा साधारण कहा गया है।
___ ननु संसारवन्मुक्तेरपिहेयत्वं यत्र तादृशं चेत् पुष्टिमार्गीयतत्त्वं तदा मुक्तेः : पुरुषार्थत्व बोधिकायाः श्रुतेः प्रतारकत्वमापततीति तद्बोधक प्रमाणानां तत्स्तुतिमात्रपरत्वमेवेति प्राप्त आह
यदि संसार की तरह मुक्ति में भी हीनता है तो पुष्टिमार्गीय तत्व भी तो मुक्ति परक है, उससे संबद्ध पुरषार्थ बोधिका श्रुति तो छलना मात्र ही है और उसके बोधक प्रमाण भी उसकी स्तुतिमात्र परक हैं, इस पर कहते हैं
सूक्ष्म प्रमाणतश्च तथोपलब्धः।४।२।९॥
__पुष्टिमार्गीयं तत्त्वं सूक्ष्मं दुज्ञेयमिति । अत्रायमाशयः पुष्टिमर्यादामप्यतिक्रम्य पुष्टिपुष्टी प्रवेशे तत्तत्वमनुभवविषयो भवति नान्यथा । तत्र प्रवेशस्त्वतिदुरापोऽतिशयिताऽनुग्रहेतराऽसाध्यत्वादत उक्ततराऽज्ञेयमेव तद्भवति । तेषां तु मुक्तिरेवफलम् । तस्या एवेष्टत्वाद् रागिणां स्वर्गादिवत् । इष्टफलाप्राप्तौ हि प्रतारकत्वमन्यथा प्रवृत्तिमार्गीयफल बोधिकाया अपि श्रुतेः प्रतारकत्वं स्यात् । इच्छा चाधिकारानुसारिणीति नानुपपन्न किचिदिति ।।
पुष्टिमार्गीय तत्व सूक्ष्म और दुर्जेय है, पुष्टि मर्यादा का भी अतिक्रमण करके जब भक्त पुष्टिपुष्ट हो जाता है तब वह तत्त्व अनुभव का विषय होता है, ऐसे नहीं होता । पुष्टिपुष्ट होना अति कठिन है, वह भगवान को अत्यन्त कृपा के बिना संभव नहीं है अतः उसकी जानकारी भी बिना भगवत्कृपा के किसी अन्य साधन से साध्य नहीं है । इस मार्ग का फल मुक्ति ही है, वह मुक्ति भी रागियों को प्राप्त होने वाले स्वर्गादि फलों की तरह ही है । यदि इस मोक्ष को छलना मात्र मानेंगे तो प्रवृत्तिमार्गी रागी जीवों की मुक्ति बोधिका श्रुति भी छलना ही सिद्ध होगी। भगवदिच्छा, जीवों के अधिकार के अनुसार ही होती है, इसलिए, कुछ भी असंभव या छलना नहीं है।
नन्वेवं विधार्थाऽस्तित्वे कि मानमित्याकांक्षायामाह-प्रमाणत इत्यादि । । प्रमाणं भूतिः, सातु, “यतोवाची निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह, आनन्दं ब्रह्मणो