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अमृतत्व भी पुष्टिमार्ग में, समान ही है, अर्थात् ब्रत पालन द्वारा जिस अमृतत्व को मर्यादी प्रास करते हैं उसे ही पुष्टिमार्गी बिना ब्रत के ही प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार दोनों मार्गों का उद्देश्य और लक्ष्य तो एक ही है, केवल मार्ग में भिन्नता है।
. एवं प्रासंगिकमुक्त्वा प्रकृतं परामृश्यते । सोऽध्यक्ष इति सूत्रेण पुष्टिमार्गीयभक्त संघातस्य भगवत्येवलय इत्युक्तम् । अग्रिमेण तेन मर्यादामार्गीयभक्तसंघातस्य भूतेषुलयमुक्त्वा प्रश्नानन्तरं शुद्ध जीवस्य तस्य मुक्तिरेव भवतीति वक्तव्ये सति, "आहर सौम्यहस्तम्" इत्यादिना स्वाशयमन्येष्वप्रकटयन्तो कर्म यनिरूपितवन्तौ तत्कुत इत्याशंक्य तयोराशयं निगूढं प्रकटयति ।
प्रसंगतः दोनों मार्गों के उद्देश्य की एकता का निरूपण करके अब पुनः प्रसंग पर विचार करते हैं । "सोऽध्यक्ष" सूत्र से पुष्टिमार्गीय भक्त के वागादि संघातों को भगवान में लय बतलाया गया और उसके बाद के सूत्र से मर्यादामार्गीय भक्त के संघातों का भूतों में लय बतलाकर, प्रश्न के बाद शुद्ध जीव की
मुक्ति ही होती है, इस वक्तव्य में "आहरं सौम्य हस्तम्" इत्यादि से अपने • आशय को अन्यों के समक्ष प्रकट न करके जिस कर्म का निरूपण किया गया है, . उसका क्या आशय है, इस संशय पर उन दोनों के आशय को निगृहूं भाव से • प्रकट करते हैं
तदापीतेः संसारव्यपदेशात् ।४।२।८॥ ' . . . . . . ... . ...तदा नित्यलीलान्तः पातलक्षण पुष्टिमार्गीय मुक्तिदशायां मर्यादामार्गीय या ; अपीतेमुक्त संसास्त्वाभावेऽपि पुरुषोत्तमभजनानन्दानुभवाभावात् संसार इत्येव. पुष्टिमार्गे व्यवदेशो यतः क्रियते. अतस्तदंभिसंधाय तयारीत्या . निरूपणम् । : अतएव श्री भागवते श्री शिववचनं गीयते---"नारायणपराः सर्वे न कुतश्चन
विभ्यति, स्वर्गापवर्गनरकेष्वपि तुल्यार्थदर्शिनः।" इति श्री. भगवद्गीतांष्वपि . "देवान देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि" इति वाक्येन।। मर्यादामार्गीयभक्तमुक्तरितरसाधारण्यमुच्यते।। .... : . . .::-; ।' यद्यपि मर्यादामार्गीय मुक्ति में संसार'को अभाव रहता है फिर भी वह पुरुषोत्तम भजनानंदानुभव के न होने से संसार से भयभीत रहता है, जब किपुष्टिमार्गीय भक्त, मुक्तावस्था में भागवल्लीला में नित्य आनंद की अनुभूति करता हुआ उन भोतिकाओं से सर्वथा मुक्त रहता है जैसा कि श्री भागवत में