________________
( ५८२ ) देहान्तर में जाने वाले जीव के प्राण और इन्द्रियों के साथ जाने की बात कहती है अतः वाग आदि के लय की बात वहाँ लागू नहीं हो सकती, अतः उक्त प्रसंग "क्वायं" इत्यादि प्रश्न से संबद्ध नहीं है । पूर्ववाक्य में "अत्रैव समवलीयन्त" 'ऐसा स्पष्ट कहा गया है, इसलिए हमने जो मत स्थिर किया है, उसी का अनुसरण करना चाहिए । इस प्रसंग को परविद्यावान से संबद्ध भी नहीं मानना चाहिए, क्योंकि उसका फल तो अमृतत्व प्राप्ति है। उत्क्रमण श्र ति, शरीरान्तर भावी जीव की निश्चयात्मिका है अतः उसमें उत्क्रमण की बात अपेक्षित है, उसमें कर्माश्रयता की बात नहीं है अपितु अपरविद्यावान का प्रसंग है । उसका 'फल ब्रह्मलोक प्राप्ति तक है, इसलिए कर्माश्रयत्व और उत्क्रमणआदि संभव है, ये मत भी, इसी विचार के आधार पर निरस्त हो जाता है । ३ अधिकरण :
समानाचासृत्युपक्रमावमतत्वं चानुपोष्य ।४।२७॥ ..' मर्यादापुष्टयोर्न कदाचिदन्यथाभाव इंति यदुक्तं तत्र हेत्वपेक्षायां वस्तुस्वरूपमेव तथेति बोधयितुमाह-समानेत्यादि । अत्रायमाशयः, साधनक्रमेण मोचनेच्छा हि मर्यादामार्गीया मर्यादा । विहित साधनं विनैव मोचनेच्छा पुष्टिमार्गमर्यादा । तथा सति 'सदैकरूपत्वं तयोयुक्तमिति । एतदेवाह- सृतिः संसृतिः, जीवानां स्वस्मात् पृथक्कृतानाम् अविद्यया अहंन्ताममतास्पदीकरणम्। तदुपक्रम आरम्भस्तं मर्यादीकृत्य मुक्तिपर्यन्तमुक्तरूपा मर्यादा समाना सदैकरूपा मध्ये नान्यथा भवतीत्यर्थः । एवमेवानुपोण्य, ब्रतमकृत्वा अमृतत्वमपि पुष्टिमार्गे समान मित्यर्थः । अत्रोपोषणपदमशेषमुक्तिसाधनोपलक्षकम् ।
.. ... जो यह कहा गया कि-मर्यादा और पुष्टि में कोई अन्यथा भाव नहीं है, • उसमें कारण दिखलाने के लिए वस्तुस्वरूप का निरूपण करते हुए, यह सूत्र प्रस्तुत करते हैं । इसमें आशय यह है कि क्रमशः 'सावन करते हुए मुक्त होने की इच्छा मर्यादामार्गीय मर्यादा है, तथा विहित साधनों के बिना ही मुक्त होने की इच्छा पुष्टि मार्ग की मर्यादा है इन दोनों में ये बात सदा एक सी रहती हैं, उसमें रंचमात्र भी अन्तर नहीं आता। यही बात सूत्रकार कहते हैं किजो सृष्टि, जीवों के वास्तविक स्वरूप से नितान्त भिन्न है, उसी सृष्टि में, अज्ञान
वश, मै और मेरे का भाव आ जाता है, इस अहंता और ममता से छूटने के । भलिए ही दोनों मार्ग. मुक्तिपर्यन्त उक्त मर्यादाओं का पालन करते हैं, उनमें कभी
भी अन्तर नहीं आता :सदा एकरूपता रहता है। इसी प्रकार :बिना ब्रत, के