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( ५८१ ) मर्यादामार्गीय दो प्रकार के होते हैं, भक्त और ज्ञानी, उक्त निर्णय तो ज्ञानमार्गीय के लिए ही है । मर्यादी भक्त कभी पुष्टि में भी प्रवेश करते हैं, ऐसी शंका का निर्णय करते हैं।
नकस्मिन् दर्शयतो हि ।४।२।६।।
एकास्मिन् ज्ञानिनि भक्ते वा मर्यादा नियमो न, किन्तुभयोरपि । तत्र हेतुः, दर्शयत इति । यतो याज्ञयल्क्यातभागौ ज्ञानी भक्त साधारण्येन मर्यादानियम दर्शयत उक्तरीत्या, तौ हेत्यादिना । अन्यथा अप्राकृताङ्गीकृतिरन्यथा भवेदित्युपपत्तिहिशब्देन सूच्यते पूर्वोक्त पूर्वोत्तर तिविरोधपरिहारान्यथाऽनुपपत्तिरत्र मूलमिति ज्ञेयम् ।
केवल ज्ञानी या भक्त में मर्यादा का नियम नहीं है अपितु दोनों में हो है। याज्ञवल्क्य ने आतंभाग में सामान्यतः ज्ञानी और भक्त दोनों के मर्यादा का नियम "तो ह" इत्यादि से बतलाया है। यदि मर्यादी जीव की वाणी आदि का लय, भगवान में मानते हैं तो जो अप्राकृत जीवों को स्वीयत्वरूप से वरण की बात कही गई है उसका कोई महत्त्व नहीं रह जाता। वरण न ति की विशेषता सूत्रकार हि शब्द से सूचित करते हैं । पूर्वोक्त पूर्वोत्तर श्रुति के विरोध का परिहार अन्यथानुपपत्ति से ही जानना चाहिए। ...
केचितु अपसंहृतेषु वागादिषु शरीरान्तरप्रेप्सासामयिको जीवः, "क्वायं तदा पुरुष" इति प्रश्न विषय इति वदन्ति, तन्न साधीयः “तमुत्क्रान्तं प्राणोनूकामति, प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति" इति श्रुति विदेहान्तरजीवस्य प्राणानामिन्द्रियाणां च सहैवोत्क्रमणं वदति इति वागादिलयस्य तत्रासंभवानोक्तस्य प्रश्न विषयत्वं वक्तुं शक्यम् । पूर्ववाक्येऽत्रैव समवलीयन्त इत्युक्तत्वाच्चातोऽस्गदुक्त एव मार्गोऽनुसतव्यः । एतेन नायं परविद्यावान् यतः, अमृतत्वमेव तत्फलमिति । तच्चदेशान्तरानायत्तमित्युत्क्रमणापेक्षा कर्माश्रयत्वं च न स्यात् किन्त्वपरविद्यावान् । तस्यास्तु ब्रह्मलोकावधि फलमिति कर्माश्रयत्वोत्क्रमणादिकं सम्भवतीत्यपि निरस्तं वेदितव्यम् । ___ कोई महानुभाव, उपसंहृत वागादि के प्रसंग को, शरीरान्तर में जाने वाले जोव के लिए किए गए "क्वायंतदापुरुष" इत्यादि प्रश्न से संबद्ध मानते हैं, उनका मत नितान्त असंगत है "उसके उत्क्रमण करने पर प्राण अनुत्क्रमण करता है, प्राण के अनुत्क्रमण करने पर सारे ही प्राण अनुक्रमण करते हैं" ये श्रति,