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( ५४) है। सी बात भी साधीय नही है । सूर्य में जब, अन्धकार रूपी कार्य का अभाव
मान लिया गया, तब उसको प्राप्ति तो संभव हो नहीं सकती अतः भगवत • प्राप्ति में जब ज्ञान; कर्स का अभाव है तब, उसकी प्राप्ति होगी कहाँ से ?
पुरुषोत्तम ज्ञान ही मुख्य फ़ल हैं जो कि अति महत्वपूर्ण है, उसे स्पष्ट रूप से कहना सम्भव नहीं है कमुतिक न्याय से वह परम्परा प्रसिद्ध है ऐसा "तविदित्वा ब्राह्मणो भवति" इत्यादि श्रुति का तात्पर्य है । इसमें प्रयुक्त ब्राह्मण पद, ब्रह्मविद अर्थ का द्योतक है । "एषनित्य" इत्यादि पद बुद्धिस्थ ब्राह्मण माहात्म्य के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया है। वह ब्राह्मण क्या है ? ऐसी आंकाक्षा होने पर कहा गया है कि-"उस प्रभु को जान कर ब्राह्मण, विहित निषद्ध फल के सम्बन्ध से रहित हो जाता है।" यही ब्राह्मण का लक्षण है । अथात् जो साक्षात् ब्रह्म कहा जाता है, उसके लिए कुछ भी कहना कैसे सम्भव है ? तत् शब्द से उस परमात्मा का पहिले उल्लेख किया गया, बाद में उसे ब्रह्म पद से सम्बोधित किया जाता है । वह ब्राह्मण, परत्माज्ञान के अनुकूल प्रयत्न करता हुआ उसका भजन करता हैं अतः वह भक्त है । इस प्रकार के ज्ञानी भक्ति के लिये कर्म शेषता की बात कहना शक्य नहीं है फिर भगवद् ज्ञान की कर्म शेषता की बात तो बहुत दूर है।
२ अधिकरण :. पारिप्लवार्था इति चेन्न विशेषितत्वात् । ३।४।२२।
अथ प्रकारान्तरेण शंकते। "भृगुवंवारुणिवरुणं पितरमुपससार।" "अधीहिं भगव"-इति होपसपसाद सनत्कुमारं नारदः।" "प्रतर्दनो ह वै दैवोदासिरिन्द्रस्य प्रियं धामोपजगाम्" इत्यादि उपाख्यानहिं ब्रह्मविद्या निरूप्यते । “सवख्यिानानि पारिप्लवे शंसतीति श्रु त्या शंसन शेषत्वं तेषामवगभ्यते । भंसने शब्दमात्रस्य प्राधान्येनार्थज्ञानस्यातंथात्वदुपदेशान्ताख्यानप्रतिपाद्य ज्ञानं मंत्रार्थवद प्रयोजकमिति कर्मशेषत्वं अपि न वक्तु शक्यम् । प्राधान्यं तु दुरापास्तम् । धर्मिणि एवासिद्धिरित्याह-पारिप्लवार्था इति । 'उक्त रीत्या सर्वा उपाख्यानश्र तयः कर्मशेषभूता इत्यर्थः । अत्राचार्य एवमपि कर्मशेषत्वं ज्ञानस्य न संभवति इत्याहनेति-कुतः ? विशेषितत्वात्-कर्मणः शकाशाज्ज्ञानं विशेषितमधिकधर्मविशिष्टत्वेनीक्तमिति न ज्ञानस्य कर्मशेषत्वमित्यर्थः । - अब प्रकारान्तर से पुनः शंका करते हैं कि- "भृगुवै" "अधीहि भगव"