________________
( ५१२ ) वैदिक साधनानां वैयर्थ्य कामति चेत्, भ्रमकृतत्वेऽपि जन्मान्तरीयाक्षरज्ञानोपयोगि संस्काराधायकत्वेनाक्यर्थ्यात् ।
"वेदानुचनैन" में प्रयुक्त अनुपद से ये न समझ लेना चाहिये कि, "उसे जानकर मुनि होता है" इत्यादि श्रुति में जो सान्निध्य दिखलाया गया वह उक्त साधनों की जानकारी की ओर इंगन कर रहा है । वेदानु वचन आदि समस्त वाक्य, वेदन को साधन रूप.से वर्णन करते हैं और सभी वेत्ताओं में वेदन होता भी है, उस दृष्टि से "मुनिर्भवति" वाक्य ब्रह्मवेत्ता एकता की बतलाता हो सो बात नहीं है अपितु किसी एक को ज्ञान होता है, ऐसी ज्ञान की दुर्लभता बतला रहा है । 'हजारों मनुष्यों में कोई एक मुझे जानने का प्रयास करता है, प्रयास करने वालों में कोई एक मुझ सही ढंग से जान पाता है" इत्यादि भगवद् याक्य से भी ज्ञान की दुर्लभता निश्चित होती है । यदि ऐसी बात है तो, वेदानुवचन आदि में निःशंक प्रवृत्ति कैसे संभव है ? "स वा अयमामात्मा" इत्यादि पूर्व श्रुति से भगवद् माहात्म्य सुनकर जो कुछ परमात्मा को जानने की उत्सुकता होती है वह सत्संग न मिलने पर भक्ति के स्वरूप को न जानने के कारण असफल हो जाती है । कम मार्ग में केवल आश्रम धर्म का ही तो पालन होता है कोई अलौकिकार्थ साधन तो होता नहीं, अतः माहात्म्य ज्ञाग हो जाने पर भी उसे साधन मात्र ही मान लिया जाता है और उसी को करते भी हैं । इस प्रकार वैदिक साधन भक्ति मार्ग में भ्रामक हैं। यदि कहे कि तब तो वैदिक साधन व्यर्थ हुए ? सो बात न ही है-भ्रामक होते हुये भी जन्मान्तरीय अक्षर ज्ञानपयोगी संस्काराधायक होने से वे व्यर्थ नहीं हैं।
स्तुतिमात्रमुपादानावितिचेन्नापूर्वत्वात् ।।४।२।। :: ननु सास्यश्रुतेर्हेतोः कर्म शेषत्वं ज्ञानस्य यदपास्तं तन्नोपपद्यते । साम्योक्तेऑनस्तुतिरूपत्त्रात् । अपि च तथा ज्ञानिनोऽपि कर्मोपादानात् कर्मकृतिस्वीकारादिति यावत् । अन्यथा ज्ञानिनां कर्म कृत्यभावेन तत्कृतगुणदोषाप्रसक्त्या तनिषेधानुपपत्तिः स्यात्, तेषामपितत् कृत मुणदोष संबंधोऽस्त्येवेति ज्ञापनाय मात्रपदम् । निषेधेनेतर साधारण्यं परिहियते । तथा च ज्ञानिनोऽपि कर्म करणात् कर्म शेषत्वं ज्ञानस्य निष्प्रत्यूहम् इति चेत् नैवं वस्तुयुक्तम पदज्ञानस्य कर्म फलासंबंध फलकत्वस्यापूर्ववाद विधयत्वमेव। .. · · साम्य श्रुति के आधार पर जो ज्ञान की कर्म शेषता का निराकरण किया गया, वह हो नहीं सकता, साम्योक्ति तो ज्ञानस्तुति रूप है। दूसरी बात में है कि-ज्ञानी भी, उपादान रूप से कर्म करते हैं, अतः वै भी कर्मकृति को