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( ५५० ) में यही गूढाशय निहित है। शब्द क्रम से अर्थक्रम अधिक वजनी होता है इत नियम के अनुसार "दृष्टव्य" पद को पश्चात् संबंध मानने की कोई गुजायश नहीं रहती, अत: फल' प्रकरण से साधन के वर्णन की असंगति प्रतीत होती है, इसलिए सूत्रार्थ के प्रकारान्तर से कहेंगे-श्रुति,कर्म ज्ञान और भक्ति को साक्षात् परम्पराभेद से पुरुषार्थ का साधन बतलाती है, हीन मध्यम और उत्तम अधिकारो के भेद से उनके कर्तव्य का पतिपादन करती है। इन सबके स्वरूप को बादरायण तृतीय अध्याय में प्रतिपादन कर चुके हैं। अब चौथे अध्याय में उनके फल पर विचार करते हैं। सर्व प्रथम कर्ममार्ग के फल को बतलाते हैं। ज्ञान और भक्ति का फल तो उत्तम और अत्युत्तम होता है अतः उनका साधन करना हो कर्तव्य है। बिना साधन के उनका फल नहीं होता । कर्गमार्ग को आवृत्ति से पुनः पुनः जन्म की आवृत्ति होती है, सूत्रस्थ आवृत्ति पद दोनों ही प्रकार की (साधन और फल की) आवृत्ति को बतला रहा हैं। श्रुति में, कर्ममार्ग की प्रवृत्ति से पुनर्जन्म की आवृत्ति का बारबार उल्लेख है, इससे निश्चित होता है कि कर्ममार्ग पुनरावृत्ति परक है एक बार के उल्लेख से ही उक्त बात की पुष्टि संभव नहीं हो सकती इसलिए बार बार उसका उल्लेख किया गमा है ।
वाजसनेयिशाखायांपठ्यते-“एवमेवार्य शरीरं आत्मभ्योऽङ्ग भ्यः संप्रमुच्य पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति प्राणायैवेत्ति तत्रैव पुनस्तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्कामति" इत्युपक्रम्य पठ्यते-"तविद्याकर्मणी समन्वारभेतेपूर्वप्रज्ञाचेति' तत्रैवेतदनुपदमेव-"तद् यथातृणजलायुके" त्युपक्रम्य पठ्यते-“एवमेवायंपुरुव इदं शरीरं निहत्याऽविद्या गमयित्वान्यन्नवतरंकल्याणतरं रूपंतनुते पित्र्यंवा गान्धर्व' वा ब्राह्म वा प्राजापत्यं वा दैवं वा मानुषं वाऽन्येभ्यो वा भूतेभ्यः" इति तत्रैवाने पठ्यते-"प्राप्यांतं कर्णणस्तस्य यत् किंचेह करोत्ययम् तस्माल्लोकात् पुनरेत्यस्मै लोकाय कर्मणः" इति ।।
जैसा कि वाजसनेयी शाखा में पाठ आता है-'इस प्रकार यह शारीर आत्मा इन अंगों का त्याग कर पुनः अन्य योनि में जाता है वहाँ से यह आत्मा पुनः निकलता है" ऐसा उपक्रम करके कहते हैं-"वह विद्या और कर्म का पूर्वप्रज्ञा के अनुसार प्रयोग करता है।" इसी पाठ से मिलता जुलता दूसरा पाठ वहीं और भी है-"वह जलूक कोड़े की तरह शरीर छोड़ता और पकड़ता है" ऐसा उपक्रम करके - "इस प्रकार यह जीव इस शरीर को छोड़कर अविद्या को छोड़कर दूसरा नवीन कल्याणमय रूप धारण करता है, वह पित, गांधर्व,