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प्रारब्ध नाशायैवेत्यर्थः । येषामग्निहोत्रादिकारकं प्रारब्धमस्ति तैरेवतन्नाशाय भोगवत्तदपि क्रियते, न त्वतादृशैरत एव न सनकादीनां तथात्वम् । कुत एतत् ! तद् दर्शनात् — “यथाकारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति, पापकारी पापो भवति, पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति, पापः पापेन" इति श्रुतिः पूर्वं कर्मणोऽग्रिमकर्म हेतुत्वं दर्शयति इति नानुपपत्तिः काचित् । केचित्तु ज्ञानस्य यत्कार्यं तदेवाग्निहोत्रादिरिति तत्कार्यायेति पदस्यार्थ वदंति । स न साधुः । तदधिगम इत्युपक्रमाद् ब्रह्मविदः प्रारब्धात्मक प्रतिबंधनाशे मोक्षस्य पूर्वज्ञाने नेव संपत्तोः कर्मणो वैयर्थ्यापातात् । " तमेतं वेदानुवचनेन" इत्यादि श्रुति, दर्शनपदार्थ इत्यपि पूर्वविरोधादुपेक्ष्यः ।
प्रारब्ध तो प्राचीन कर्मों का ही परिणाम होता है अतः ब्रह्मवेत्ता, उसे नाश करने के लिये उसे भोग ही लें अग्निहोत्र आदि अन्य साधनों को क्या आवश्यकता है । उनके पालन का प्रयोजन हो क्या है ? अग्निहोत्र आदि करने वालों को भी उत्तरीय पापों का आश्लेष होता देखा जाता है । इस शंका का समाधान करते हुए अग्निहोत्र आदि का प्रयोजन बतलाते हैं । कहते हैं किअग्निहोत्र आदि शास्त्र विहित कर्म करने से प्रारब्ध नाश ही होता है । जिन लोगों का अग्निहोत्र आदि कारक प्रारब्ध होता है, वे ही उस प्रारब्ध को, अग्निहोत्र आदि के पालन के रूप में भोग कर नाश करते हैं, जिनका वैसा प्रारब्ध नहीं होता वे नहीं करते जैसे कि - सनकादि ने नहीं किया । ऐसा वर्णन भी मिलता है - " जैसा कर्म करता और जैसा आचरण करता है वैसा होता है, साधु कर्म करने वाला साधु होता है, पापकर्म करने वाला पापी होता है, पुण्य से पुण्य और पापकर्म से पाप होता है" यह श्रुति पूर्व कर्म को अग्रिम कर्म का हेतु बतलाती है । इस प्रकार उक्त ससस्या का समाधान हो जाता है । कुछ लोग कहते हैं कि, जो कार्य ज्ञान करता है वही कार्य अग्निहोत्र आदि भी करते हैं, उनका ये कथन सही नहीं हैं । ब्रह्मवेत्ता के यदि प्रारब्धात्मक प्रतिबन्ध का नाश हो जाय तो मोक्ष के पूर्वज्ञान से हो मुक्ति हो जावेगी । फिर शास्त्रीय कर्मों का महत्व ही समाप्त हो जावेगा । "तमेतं वेदानुवचनेन" इत्यादि श्रुति भी फिर उपेक्ष्य हो जावेगी ।
७. अधिकरण:
अतोऽपि
केषामुभयोः |४|१|१७||
तदेवं पूर्वं सूत्रचतुष्टयेन मर्यादामार्गीय भक्तस्य मर्यादयैव मुक्ति प्रतिबन्ध