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( ५७० ) दन्येम्योऽतिशयं कर्मणि वदति श्रतिस्त साक्षात :मिसम्बन्धेऽतिशयित कार्यसंपत्तौ कथनसंभावना कत्त मुचितेति निगूढाशयः । अतएव हेतुवाची हि शब्द ।
“यदेव विद्यया करोति" इत्यादि श्र ति, विद्यापूर्वक किए गये कर्म का बलवत्तर फल बतलाती है, इसलिये ब्रह्मविद्यावान को कर्म संसर्ग नहीं होता ये कथन सही नहीं प्रतीत होता, क्योंकि-विद्यावान का कर्म तो और बलवान होता है, उसका संसर्ग तो होगा हो। इस पर उक्त “यदेव" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते है। कहते हैं कि आपने जो ब्रह्मविद में भी कर्मोत्पत्ति और आसक्ति की बात, जिस आधार पर कही है वह “यदेवविद्याकरोति' आदि श्रुति उस प्रसंग से कोई मतलब नहीं रखती । "ओम् इस एक अक्षर से उद्गीय की उपासना करनी चाहिये' इत्यादि उपक्रम करते हुये उद्गीथ का रसतमत्व, मिथुनरूपत्व, अनुज्ञाक्षरत्व त्रयोप्रवृत्ति हेतुत्व, आदि का निरूपण करके उसी के आगे “यदेवविद्ययां" आदि कह कर "इसी अक्षर की उपव्याख्यान होता है" ऐसा प्रसंग का उपसंहार किया गया है, इससे ज्ञात होता है कि"यदेव विद्यया" इत्यादि वाक्य उद्गीथ उपासना संबंधी है। उक्त प्रसंग में दिखलाया गया है कि-रसतमत्व आदि प्रकार की उपासनाओं में “जो उद्गीथ विद्या के द्वारा उपासना करता है, उसकी उपासना प्रबल होती है" इसमें ब्रह्मविद्या का तो कहीं प्रसंग ही नहीं है, अतः आपको शंका निराधार है । उक्त शंका के निराकरण के लिए हो उक्त सूत्र, सूत्रकार ने प्रस्तुत किया है । ब्रह्मवेत्ता प्रारब्धक्षय के लिये ही कम करता है, उनका कर्म अन्य लोगों के कर्म से इसलिये श्रेष्ठ होता है कि वे वासना सहित कर्म को क्षय करते है, जिससे कि उनका कर्म संचित न हो सके। इसलिए उसमें संशय होना ही चाहिये । पुष्टिमार्गीय जीव का प्रारब्ध, बिना भोग के ही नष्ट हो जाता है, इस बात को सुनकर जो असम्भव मानते हैं उन्हें कैमुतिकन्याय से सूत्रकार समझाते हैं कि-जीवनिष्ठ विद्या भगवान की ज्ञान शक्ति की ही अंश हैं, अतः जो श्रुति जीव के अलौकिक कर्मों की चर्चा करती है, वह अलौकिकता परमात्मा से ही तो सम्बद्ध है अतः उसमें संशय करना क्या उचित होगा ? यही सूत्रकार का गूढ आशय है ।
भोगेनत्वितरे क्षपयित्वाऽथ संपद्यते ॥४॥१॥१९॥
पुष्टिमार्गीय फल प्रामौ प्रतिबंधाभावंसोपपत्तिकमुक्त्वा तत्प्राप्ति प्रकारमाह-इतरे-अप्राप्यालौकिक देहाभिन्न स्थूललिंगशरीरे क्षपयित्वा दूरी