________________
(( ५७३५)) से ही होता है । प्रभु को वशीकरण करने में समर्थ स्नेह तो प्रभु के लिए किए । मए सांसारिक वस्तुओं के त्याग और भजन से ही होता है। जब भक्तियोग की सिद्धि हो जाती है तो स्नेह आदि तो निश्चित ही हो जाते हैं। मर्यादा मार्ग में जो लग जाते हैं, उनकी साधना का लक्ष्य मुक्ति ही होता है, वे मुक्ति के लिए ही प्रयास करते हैं इसलिए उनमें उत्कट स्नेह नहीं हो पाता अतः उनके समक्ष प्रभप्राकट्य भी नहीं होता। वाणी से लेकर प्राण पर्यन्त समस्त संघातों के लय हो जाने से शुद्ध जीव की जो भगवत्कृपा से श्रवणादि रूप और स्नेह रूपाभक्ति होती है उससे स्वतः मुक्ति संपन्न हो जाती है मर्यादा मागीय और पुष्टिमागीय मुक्ति में बड़ा अन्तर है, यही बात इस सूत्र से बतलाई गई है। उपगम का वर्णन मुण्डकोपनिषद् में स्पष्टतः आता है-"यह आत्मा प्रवचन से" ऐसा उपक्रम करते हुए" जिसे वह प्रभु वरण करता है उसे अपना स्वरूप दिखला देता है "यह आत्मा बलहीन से लभ्य नहीं है, न प्रमाद या तप से ही लभ्य है, इन उपायों से जो विद्वान् प्रयास करते हैं उनका आत्मा ब्रह्मतेज में प्रविष्ट हो जाता है।"
२ अधिकरण :
भूतेषु तच्छ तेः ४।२॥५॥ .. ननु मर्यादामार्गीयाणा मप्येवमेव वागादिलय ? उतान्यथेति संशये निर्णयमाह-तच्छ तेः 'यत्रास्य पुरुषस्य मृतस्याग्नि वागप्येति वातं प्राणश्चक्षुरादित्यं मनश्चन्द्रदिशः श्रोत्रं पृथिवीं शरीरमाकाशमात्मौषधीलॊमानि वनस्पतीन् केशा अप्सु लोहितं च रेतश्च निधीयत" इति श्रुतेः। __ मर्यादामार्गीय के वांगादि का य भी उक्त प्रकार से ही होता है, अथवा. दूसरी प्रकार से होता है ? इस संशय पर निर्णय देते हैं कि उनके संघातों का लय भूतों में होता है, पुष्टिमार्गीयों की तरह भगवान में नहीं होता। इनके लय का प्रकार श्रुति में इस प्रकार दिया हुआ है-"इस मृत पुरुष की वाणी अग्नि में, प्राण वायु में, नेत्र सूर्य में, मन, चन्द्रमा में, श्रोत्र दिशाओं में, शरीर पृथ्वी में, आत्मा आकाश में, लो म केश आदि, वनस्पति और औषधियों में, रक्त और वीर्य जल में लीन हो जाते हैं।"
नः चाविद्वद्विषयिणीयं श्रुतिरिति वाच्यम् । "याज्ञवल्क्येति हो वाच यत्रायं पुरुषों म्रियत उदस्मात् प्राणां क्रामत्याही नेति नैंति होवाच याज्ञवल्क्योऽत्रक -