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है, उसका फल प्रभु प्राकट्य हैं, दर्शन की उत्कण्ठा में "अयं मां पश्यतु" ऐसी 'कृपामयी प्रभु की इच्छा आवश्यक है, यदि वह कृपा हो जाय तो भक्त नेत्र
और मन से प्रभु के रूपामृत का आस्वाद करता है, दर्शन से उसके मन में, समस्त इन्द्रियों से, भगवत्साहचर्य करने की उत्कट अभिलाषा होती है। उसमें वैसा करने का सामर्थ्य नहीं होता अतः वह, "भगवदानंद संबंधी मन से ही उन्हें प्राप्त करू गा" ऐसा विचार कर मन से ही भगवद्रस में आप्लावित होकर भगवदानंद में निमग्न हो जाता है । इसी अर्थ के अनुसार अग्रिम "अतएव सर्वाण्यनु" सूत्र से निरूपण करते हैं । दर्शन के बाद सबसे पहिले प्रभु के साथ -संभाषण करने की इच्छा होती है "वाङ्मनसि संपद्यते" छांदोग्य को इस -स्पष्टोक्ति से सम्मत, उक्त मत का, सूत्रकार सर्वप्रथम उल्लेख करते हैं । इस प्रकार सूत्र का अर्थ होता है कि-वाणी और मन के साहचर्य से, भगवदानंद से संपन्न होता है । दर्शन न होने पर, वंशी आदि की ध्वनि से भी आनंद सम्पन्न हो जाता है, यही भाव, “शब्दाच्च" पद से सूत्रकार बतलाते हैं ।
अतएव सर्वाण्यनु ।४।२।२॥
अतएव दर्शनाच्छब्दाच्च हेतोः सर्वाणीन्द्रियाणि, अनु सान्निध्याद वाचः 'पश्चान्मनसि संगतानि भगवदानंदेन संपद्यन्त इत्यर्थः । केचित्वत्र छांदोग्यस्थं, "वाङ्मनसि संपद्यतेमनः प्राणे प्राणस्तेजसि तेजः परस्यां देवतायाम्" इति वाक्यं विषयत्वेन उक्तवा सूत्रे वाक्यपदस्य तवृत्तिपरत्वं वदन्ति, सम्पत्ति सन्नाशं च । तन्न साधीयः । तथाहि, वाक्यादस्य वृत्तिपरत्वं चेच्छ त्यभिमतंस्यात् सूत्रकारस्तदा तथै ववदेन तु तत्सरूपमेब वाक्यम् । तन्निर्णयार्थमेव प्रवृत्तेः । मुख्या- . र्थत्यागो लक्षणापत्तिश्च । किं चैवं मनसोति पद वैयर्थ्य स्यात् । विषयवाक्योतक्रमत्यागानुपपत्तिश्चेति ।
सभी इन्द्रियाँ, वाणी और मन के सानिध्य से, भगवदर्शन और वेणु आदि ध्वनि से, भगवदानन्द में निमग्न हो जाती हैं। कुछ लोग “वाणी मन में, मन प्राण में, प्राण तेज में, तेज पर देवता में" इत्यादि छान्दोग्यस्थ वाक्य को उक्त विषय से संबद्ध बतलाकर वाक् पद की तवृत्तिपरता बतलाकर, सम्पत्ति और उसके नाश की चर्चा करते हैं उनके कथनानुसार विषय का समाधान नहीं हो सकता। यदि वाक् पद की वृत्तिपरता की श्रुति सम्मत मानते तो सूत्रकार वैसा ही कहते, उसका स्वरूप ही न बतलाते । उसके निर्णय के लिए ही प्रवृत्ति होती। वैसा करने से मुख्यार्थ को छोड़कर लक्षणा करनी पड़ती। इतना ही