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( ५६६ ) जो प्रारब्ध के अतिरिक्त समस्त सामान्य कर्म के बिनाश का निरूपण किया गया है, उससे पापकृत्यों को काम्य नहीं कह सकते । इन सब विचारों से निश्चित होता है कि, भगवान, अपने अति अनुग्रह के भाजन भक्त के, अपनी प्राप्ति में बिलम्ब को न सह सकने के कारण, प्रारब्ध भोग को उसके सम्बन्धी जनों से जोड़कर भोग कराते हैं। प्रारब्ध, भोग से ही नष्ट होता है, अपनी बनाई हुई .मर्यादा को उक्त प्रकार से पालन कराते हैं, नष्ट नहीं करते । ये कहना ठीक नहीं कि प्रारब्ध पुण्य और पाप अमूर्त भगवान द्वारा कैसे, भोग कराए जा सकते हैं, ईश्वर होने के कारण उनमें असंभव कृत्य को भी करने का सामर्थ्य है। पुष्टिमार्ग में, भक्त स्वपं प्रारब्ध नहीं भोगता, वह भगवदीय मर्यादा के विपरीत है, फिर भी उसमें थोड़ी भी असंभावना नहीं माननी चाहिए वह तो उस मार्ग का आभूषण ही है "एकेषां" पद से सूत्रकार पुष्टिमागीय भक्तों के उक्त दुर्लभाधिकार का ही उल्लेख कर रहे हैं।
यदेव विद्ययेति हि ।४।१।१८॥
ननु 'यदेव विद्यया करोति" इति श्रुत्या विद्यापूर्वकं कर्म करणे वीर्यातिशयः फलं श्र यते । अतो ब्रह्मविद्यावतोऽपि तथात्वस्योचितत्वात् तदुत्तरस्याश्लेष इति ये दुक्तं तन्नोपपद्यते, इति प्राप्यते, आह-यदेवेति । हि यस्माद् हे तोः त्वया “यदेवं विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषेदेति" श्र तिरेव ब्रह्मविदोऽपि कर्मोत्पत्तिप्रसंजिकात्वेनोदाहृता, सा तु न तत्समर्था तथाहि-"ऊ.मित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत्" इत्युपक्रभ्य तस्य रसतमत्वं मिथुन रूपत्वमनुज्ञाक्षरत्वं त्रयीप्रवृत्ति हेतुत्वंच निरूप्यैतदग्न “यद्येव विद्यया" इत्युक्त्वा "इति एतस्यैवाक्षरस्योपव्याख्यानं भवति "इत्युपसंहाराद् उद्गीथोपासनाविषयमेव "यदेव विद्यया" इति वाक्यमिति ज्ञायते । तेनोक्तरसतमत्वादिप्रकारकोपासनानो मध्ये यदेव विद्यया करोति तदेव वीर्यवत्तर भवति" इतितदर्थ इति न ब्रह्म विद्यागंधोऽपि इति न नाशंकाऽत्र संभवतीत्यर्थः । यद्वा उक्ताशंकानिरासायैवाह, यदेवेति । ब्रह्मविद् हि प्रारब्धक्षयायैवकर्मकुरुते तत्त अन्यकृतात् कर्मणः सकाशात् सवासनतन्नाशनाद् वीर्यवत्तरं भवत्येवेति नानुपपत्तिः काचिदित्यर्थः । यद्वा, ननु पुष्टिमार्गीयस्य प्रारब्धस्यापि भोगं विनैव नाश इति श्रुत्याऽसंभावना कुर्वाण प्रति कैमुतिकन्यायेन तत्परिहारमाह-यदेवेत्यादि । जीव निष्ठा विद्या हि भगवज्ञानशक्तोरंशभूता एवं सति यत्र धर्मसंबन्धितसंबन्धा