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( ५७३ ) प्रतिवाद करेंगे। जीव, ब्रह्म का हो अंश है अतः उसमें आनंदात्मकता, निर्दोष स्वरूपता, और नित्यता है, दोष तो उसमें आगंतुक होते हैं उनका अपगम भी उसी प्रकार हो जाता है, किन्तु प्राण आदि तो आगंतुक हैं नहीं अतः उन्हें उक्त दृष्टान्त से यहाँ प्रस्तुत नहीं किया जा सकता । बैकुण्ठ पुरवासी देह इन्द्रिय प्राण आदि सभी से रहित होते है, ऐसा भगवद वाक्य से निश्चित भी होता है।
न च लौकिकत्वविशिष्ट देहादिरत्र निषिद्धयत इति वाच्यम् । सामान्यनिषेधे बाधकाभावात् । न च तदनुभव एव बाधक इति वाच्यम् । भगवत इव तदीयानामपि तेषां तथात्वे बाधकाभावात्. नन्वागंतुकत्वमेव बाधकमिति चेत्-मैवम् । यथा व्यापिवैकुण्ठस्याक्षरात्मकत्वेनागंतुकत्वेन नैसर्गिकतद्गताखिलवस्तुरूपत्वेन सामीप्यादि मुक्तिं प्राप्नुवतां भक्तानां देहेन्द्रियादिरूपमप्यनागंतुकमेव वैकुण्ठ प्राप्तिमात्रेण शुद्ध जीवानां संपद्यते। तदीयत्वेन तत् फलतीति यावत् । तथा पुरुषोत्तमलीलाया अपि पुरुषोत्तमात्मकत्वात्तत्रांगीकारमात्रेण प्राचीनाशेष प्रावाहिक धर्मनिवृत्तौ शुद्ध जीवस्य पुरुषोत्तम लीलात्मकदेहादिरपि तदीयत्वेन संपद्यत इति नानुपपन्नं किंचिदित्यवहितोऽवेहि ।
यह भी नहीं कह सकते कि उक्त प्रसंम में लौकिक सामान्य देह आदि का निषेध किया गया है, सामान्य वस्तु के निषेध में कोई बाधकता तो होती नहीं, उस वस्तु का अनुभव ही बाधक हो ऐसा भी नहीं कह सकते । भगवान की तरह उनके भक्तों से भी निर्दोषता आदि सब कुछ विद्यमान हैं, इसलिए कोई बाधकता नहीं है। नवागंतुकता ही बाधक होती हो ऐसा भी नहीं है । जैसे कि-बैकुण्ठव्यापी अक्षरात्मक अनागन्तुक होने से नैसर्गिक है वैसे ही तद्गत सारी वस्तुएं भी तद्रूप होने से नित्य हैं, सामीप्य आदि मुक्ति को प्राप्त भक्तों के देह इन्द्रिय आदि अनागंतुक हैं, शुद्ध जीवों की उक्त प्रकार की मुक्ति बैकुण्ठ प्राप्ति हो जाने मात्र से हो जाती है। भगवदीय होने से वही जीवों का फल है । पुरुषोत्तम लोला भी पुरुषोत्तमात्मक होकर ही संभव है तः उस लीला में जीवों के अपना लिए जाने मात्र से, सभी प्रावाहिक प्राक्तन भोंगों को निवृत्ति हो जाती है अतः शुद्ध जीव के पुरुषोत्तम लीलात्मक देहादि भी उन्हीं के समान हो जाते हैं , कुछ भी असंभव नहीं रह जाता .यही समझना चाहिए।
अयमेवार्थों वाजसनेयिशाखायाम् "अथाकामयमान्" इत्युपक्रम्य "आत्मकाम आप्तकामोभवति, न तस्मात् प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवलीयन्ते ब्रह्मवसन