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इस प्रकार बाह्य प्राक्टय की बात कह कर अन्तर प्राकट्य को बतलाते
ध्यानाच्च ।४।०८॥
भावानोत्कट्य दशायां व्यभिचारिभावात्मक सततस्मृति रूप ध्यानादपि हृदि प्रकटः सन्नासीनो भवति इत्यर्थः । तेन स्थैर्यमुक्तंभवति । __ भावों की उत्कट दशा में व्यमिचारभावात्मक सततस्मृतिरूप ध्यान से ही भगवान् हृदय में प्रकट होकर सामने उपस्थित हो जाते हैं । इसी से भगवान की स्थिरता भी बतला दी गई। ____ एवम्भक्त च्छयैव स्वरूप प्राकट्यमित्युक्त्या लीलानाविष्करणं आविष्करणं चापि तदिच्छये वेत्याह ।
इसमें-"भक्त की इच्छा से स्वरूप प्राकट्य बतलाकर लोलापूर्वक प्रभु. का आविष्कार और अनाविष्करण भी इन्ही की इच्छा से बतलाया गया है।
अचलत्वंचापेक्ष्य ।४।१।९॥
भक्तच्छामपेक्ष्याचलत्वं चकाराच्चलत्मपीत्यर्थः । भक्त की इच्छा से ही भगवत्स्वरूप की अचलता और चंचलता होती है ।
स्मरन्ति च ।४।१।१०॥
केचन भक्ताः स्वरूपनिरपेक्षास्तत्स्मरणजनितानंदेनव विस्मृतापवर्गान्त भलाभवन्ति । चकाराच्छ्वण कीर्तनादयोऽपि समुच्चीयन्ते । तदुक्तम्-"अथ. ह वाव तव महिमाऽमृत समुद्रविप्रषा सकृल्लीढया स्वमनसि निष्यन्दमानानवरत सुखेन विस्मारित दृष्टश्रतसुखलेशभासाः परम भागवताः" इति । अथवा–“अहं भक्त पराधीन" इत्यादि स्मृतिः पूर्वोक्ते प्रमाणत्वेनोक्ता।
कुछ भक्त, स्वरूपदर्शन में निरपेक्ष होते है वे केवल उनके स्मरण जन्म आनन्द में ही विभोर होकर अपवर्गतक के फल की अनुभूति कर लेते हैं। श्रवण कीर्तन आदि से भी उनकी यही स्थित हो जाती है । जैसा कि-"हे. प्रभु ! आपकी महिमा से अमृत समुद्र में निमग्न, उसके स्वाद से उन्मत्त भक्त अपने मन में प्रवाहित सुख से दृष्टश्र त समस्त सुखों की अनुभूति को भूल जाते.