________________
(५५७ )) छांदोग्य में आता है कि-"फिर उसने पुलुष के पुत्र सत्य यज्ञ से कहा 'कि—प्राचीन योग्य । तुम किस आत्मा की उपासना करते हो वह बोला पूज्य
राजन् । मैं आदित्य की ही उपासना करता हूँ। उसके बाद उसने इन्द्रद्युम्न से कहा, तुम किस आत्मा की उपासना करते हो, वह बोला पूज्य राजन् । मैं वायु की उपासना करता हूँ। "इसके बाद प्रश्न भेद और वक्ता के भेद से आकाश जल आदि की आत्मारूप से उपासना बतलाई गई है। उसी जगह 'असो वा आदित्यो देवम्" इत्यादि उपक्रम करके समाप्ति की गई है कि-"य एतमेवं विद्वान् आदित्यं ब्रह्मेत्युपास्ते" इत्यादि । इस प्रसंग में विचारणीय यह है कियहाँ प्रतीकोपासना है या नहीं ? प्रतीकोपासना है, यह तो पूर्वपक्ष है। तथा, "सर्व खल्विदं ब्रह्म" इस श्रुति में, समस्त को ब्रह्मत्वरूप से ही बतलाया गया है अतः कहीं भी प्रतीकोपासना नहीं है, ऐसा अभी बतला चुके हैं। इसलिए उक्त श्रुति में प्रत्येक को तत्वरूप से उपास्य कहा गया हो सो समझ में नहीं आता । ब्रह्म एक ही है, एक प्रकार की उपासना से ही समस्त को फल सिद्धि अलग-अलग कही गई है, जो कि उसके गौरव को द्योतक है, उसमें और कोई विशेष प्रयोजन नहीं है । यदि कहें कि-उत्कृष्ट अधिकार का अभाव होने से ही उसकी पृथक्ता बतलाई गई है । सो बात नहीं है, सब जगह, सदा उसकी भावना करने से, वैसा अनुभव हो सकता है । इस प्रकार, समस्त को ब्रह्मता वास्तविक नहीं बतलाई गई हैं, अपितु जैसे आदित्य आदि को ब्रह्मता है, वैसे ही समस्त की भी है। इसलिए सब जगह प्रतीकोपासना ही है, उसी से फल भी मिलता है । इस मत पर प्रतिवाद करते हैं कि आदित्य आदि में जो ब्रह्म मति कही गई है, वह साकार ब्रह्म की व्यापकता को लेकर ही है उस व्यापक विराट ब्रह्म का प्रत्येक अंग उपासित होने पर फल देने वाला है, इसलिए एक अंग की उपासना पृथक्-पृथक् कही गई है । इस दृष्टि से उक्त प्रसंग सुसंगत हो जाता है । साकार व्यापक ब्रह्म के अंग तो ब्रह्म हैं नहीं, जिनकी उपासना की बात कही गई हो, अतः प्रतीकोपासना की बात संगत नहीं होती।
अपरंच "असौ वा आदित्यो देव मधु" इत्युक्त्वा तस्यप्रतिदिक रश्मीनां कृपावलोकन रूपाणांमधुत्वं निरूप्य “तद् यत् प्रथमममृतंतद्वसव उपजीवन्त्यग्निना मुखेन, न वै देवा अश्नन्ति न पिवन्त्येतदेवामृतंदृष्ट्वातृप्यन्ति, त एतदेव रूपमभिसंविशत्येतस्माद्र पादुद्यन्ति “इति पठ्यते । तथा च दर्शन मात्रेण अन्यधर्म निवृत्तिः तस्येव स्वतंत्र पुरुषार्थत्वेन ज्ञानमतिशयितस्नेहजविगाढ भावेन