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( ५५४ ) इत्यादि मत पर "आत्मेति" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । तु शब्द पूर्वपक्ष का निरासक है । कहने का आशय यह है कि जैसे अगृह्यत्व अतिमहत्व आदि विशेषतायें भगवान में हैं वैसे ही सर्वात्मकता भी है। “य आत्मनितिष्ठन्" इत्यादि श्रुतियों में उन्हें सर्वान्तर्यामी बतलाया गया है । वह समस्त विशेषताओं के आश्रित होते हुए भी जब जिस विशेषता को लेकर लीला करते हैं तब वही कार्य संपन्न होता है । उनका हित करने का स्वभाव है अतः जीव में जब आत्मा रूप से लीला करते हैं तब अपनी प्राप्ति के अनुकूल' प्रयत्न वाला उसे बनाकर स्वयं उसे प्राप्त हो जाते हैं । जो यह कहा कि कार्य का भोग अनिवार्य होता है, सो वह बात यहाँ लागू न होगी, जैसे कि अन्नरस के पकाने में जली हुई औषधि कारण नहीं होती, वैसे ही, इसमें कर्म का परिपाक नहीं हो पाता क्योंकि-भक्ति से साधक का अन्तःकरण दग्ध हो जाता है। स्वभावतः दोनों में भिन्नता होते हुए भी जैसे तीव्रतर विष किसी वस्तु को भस्म करने में समर्थ होता है वैसे ही भक्ति से कर्मों का आवरण भस्मीभूत हो जाता है। इसलिए यह नहीं कह सकते कि-भगवदर्पित या भगवान के लिए किया गया कर्म 'अन्यान्य कर्म को नष्ट करने में समर्थ नहीं हो सकता। "कर्ममोक्ष के लिए कर्मों का विधान है जैसे कि नीरोगता के लिए ओषधिका विधान होता है।" इत्यादि वाक्य कर्मनाश की पुष्टि करता है। अग्राह्यत्व और ग्राह्यत्व के विरोध का परिहार जीव सामर्थ्य और ईश्वरेच्छा दोनों से संभव है, ऐसा हम पहिले हो कह चुके हैं इसलिए यहाँ विशेष नहीं कहेंगे। सूत्र में इति शब्द हेत्वर्थक है । भगवान, समस्त जीवों के आत्मा हैं, इसलिए उनकी कृपा से साधक, उनकी निकटता प्राप्त करते हैं । ज्ञानमार्ग में अंगीकृत जीव के समक्ष पुरुषोत्तम का साक्षात् प्राकट्य हो जाता है, अतः भजन के लिए उनके समीप जाता है। श्लेषोक्तरीति से ऐसा ही तात्पर्य प्रकट होता है । भक्त लोग भगवत्कृपा से स्वयं 'जिस मार्ग से फल प्राप्त करते हैं, उसी मार्ग में अन्य लोगों को भी खींचते हैं, यहो संप्रदाय की प्रवृत्ति होती है । ज्ञान और भक्ति दोनों जगह आत्मस्वरूप से ही उपदेश दिया गया है, इस स्थिति में साधक आत्माराम और सर्व निरपेक्ष हो जाता है, उसे किसी से कुछ भी कहना या करना आवश्यक नहीं होता, यह मोक्षमार्ग की प्रसिद्ध बात है । इस मार्ग से जाने वाले को सर्वथा अनावृत्ति होती है यही श्रुति सम्मत सिद्धान्त है।
नन्वात्मत्वेनोक्तिरुपासनार्थेति नोक्त साधीयइत्यतउत्तरं पठति आत्मत्वरूप से सो निर्देश किया गया है वह उपासना के लिए है किन्तु इतने मात्र से तो ब्रह्मसाक्षात्कार हो नहीं सकता, इसका उत्तर देते हैं