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"मनुर्वैवस्वतो राजा' इत्यादि आख्यानों का जहाँ पाठ किया जाता है, वहाँ उनका सामान्य रूप से विनियोग होता है । "सभी आख्यान पारिप्लव की प्रशंसा करते हैं" ऐसा कहा गया है, इसमें, सर्व शब्द आख्यानपरक होगा, आख्यानान्तर परक न होगा, क्योंकि वह प्रकरण की नियामकता में हैं। इस प्रकार जब प्रकरण में पारिप्लव नामक कर्म का प्रस्ताव किया जाता है तब विशेष विनियोग होता है । ''पारिप्लवमाचक्षीत" ऐसा प्रस्ताव किया जाता है । उस जगह पहिले दिन "मनुर्वैवस्वतो राजा" दूसरे दिन 'इन्द्रो वैवस्वतः" तीसरे दिन "यमो वैवस्वता राजा" इत्यादि विशेष आख्यान वाक्य के अन्त में जोड़े जाते हैं। जहाँ आख्यान सामान्य रूप से कहे गए हैं वहाँ दिन विशेष, या उपाख्यान विशेष का विधान नहीं है । पारिप्लव शब्द में इसलिए एक वचन का प्रयोग किया जाता है, उसमें तो आख्यानान्तर की गन्ध भी नहीं है, आख्यानान्तरों में प्रापकत्व का अभाव है। . अतएव चाग्नीन्धनाद्यनपेक्षा ।।४।२४॥
एवं पुरुषार्थोऽतः शब्दादित्युपक्रम्य ज्ञानस्य फलसाधने कर्माऽनपेक्षत्वमुपपाद्य तत्रैवोपपत्त्यन्तरमाह । यतो ज्ञानी ज्ञानेन स्वयमेव यज्ञात्मको जातोऽत एवं जरामर्याग्निहोत्रेऽग्निस्तदिन्धनं समिदादि, तदादय आज्यादयः तेषामनपेक्षा उक्ता । तैत्तरीयके पठ्यते-"तस्यैवं विदुषो यज्ञस्यात्मा यजमानः श्रद्धा पत्नी शरीरमिध्ममुरो वेदिर्लोमानि बहिवेंदः शिखा हृदयं यूपः कामाज्यं मन्युः पशुस्तपोऽग्निः" इत्यादि । एतेत यदन्यस्य यज्ञतासंपादकं तस्य स्वकार्य साधने कथं यज्ञापेक्षाभवेदिति भावः सूच्यते ।
"पुरुषार्थोऽतः शब्दात्" सूत्र से बादरायण विषय का उपक्रम करते हुए ज्ञान को फल का साधन बतलाकर उसमें कार्य की अनपेक्षता का उपपादन करते हुये अब दूसरी उपपत्ति उपस्थित करते हैं कि-जो ज्ञानी ज्ञान से स्वयं ही यज्ञात्मक हो जाता है उसे इन्धन अग्नि आज्य आदि यज्ञीय साधनों को अपेक्षा नहीं होती । तैत्तरीयक स्रति में इसका स्पष्टोल्लेख भी है"परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान ही उस ज्ञाता का यज्ञ है, उसका आत्मा यजमान है, श्रद्धा पत्नी है, शरीर इन्धन है, उर ही वेदी है, हृदय यूप है, कामधृत है, क्रोध पशु हैं, तप अग्नि है "इत्यादि । इसमें दिखलाया गया है कि जो अपने ज्ञान से दूसरों की यज्ञता का सम्पादन कर सकता है, उसे अपने कार्यसाधन में, यज्ञ की अपेक्षा कैसे हो सकती है।