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एतावान् प्रथमे पादे निर्णयः सूत्रकृत् कृतः। द्वितीये म्रियमाणस्य सर्वेन्द्रियलयः पुरा ॥ लिंगस्यापि शरीरस्य नाड्योत्क्रान्तिरिहोच्यते । दिनाऽयनकृतो नास्य विशेषोऽस्तीति चोच्यते ॥ तृतीये क्रममुक्तौ यो मार्गों यस्य श्रुतेर्मतः । तनिर्धारान्यमार्गारागमप्राप्यत्वं च वर्ण्यते ॥ गन्तव्यं च परंब्रह्म कार्यो लोकस्तु नेति च । तुरीये पुष्टिमर्यादाभेदेन फलमुच्यते ।। प्रभोरेवफलत्वं तन्निदोषित्वं च वर्ण्यते । लीलानित्यत्वतः पूर्ण गुणत्वं च ततोऽखिलम् ॥
समन्वय अविरोध और साधनों से हुई ब्रह्मावगति से ब्रह्मविद् को जो मुक्ति प्राप्त होती है उसी का इस अंतिम चौथे अध्याय में वर्णन किया गया है । म्रियमाण जीव को गति मुक्ति रूप हो यही ब्रह्मवेत्ता की सफलता है, यही ब्रह्म ज्ञान का कार्य है, कुछ और प्रयोजन नहीं है । जो तामसी बुद्धि के आश्रय से शास्त्रीय विचारों में उथल-पुथल करते हैं, ऐसे शास्त्र नष्ट करने वाले, शास्त्रज्ञों के लिए शोचनीय हैं। यदि ब्रह्मवेत्ता के मोक्ष की बात का थोड़ा भी विरोध किया जाता है तो यह सारा उत्तर मीमांसा शास्त्र व्यर्थ हो जाएगा और समस्त वेदांत सूत्रों की योजना ही नष्ट हो जाएगी। दहर विद्या के रूप में जो ब्रह्मविद् गति का प्रकरण है उसमें सुषुप्ति और ब्रह्म प्राप्ति से संबंधित जो ब्रह्मगति को बतलाने वाली श्रुति हैं, उनका अन्यथा अर्थ नहीं किया जा सकता, यदि अन्यथा अर्थ संभव होता तो क्या व्यासदेव फल विचार के समय उसका उल्लेख न करते । जो लोग तामसी बुद्धि के सहारे जिस मुक्ति का विवेचन करते हैं, वो सुषुप्ति श्रुति का तात्पर्य है, उनका ऐसा विपरीत विचार मोहजन्य ही है। ब्रह्म वेत्ताओं को भी जीव दशा में, फलानुकूल कार्य करने चाहिए, श्रवण आदि नौ साधनों के पालन का उपदेश दिया गया है । भगवान हो जीव के आत्मा हैं, यह निश्चित सिद्धान्त है। भगवान सर्वात्मक, सर्वरूप हैं और आत्म रूप भी हैं इस दृष्टि से अभेद दृष्टि रखना, ब्रह्मवेत्ता का द्वितीय कार्य है। प्रतीकोपासना करने वाले और कर्ममार्गीयों को ऐसा भाव नहीं होता। ध्यान के आलम्बन के लिए तो ब्रह्मवेत्ता को भी किसी प्रतीक का आश्रय लेकर विशिष्ट ब्रह्म दृष्टि करनी होती है । आदित्य आदि प्रतीकों में ब्रह्मदृष्टि, अंग मानकर ही की जाती है स्वतंत्र अंगी मानकर नहीं। इस प्रकरण