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में मनन और निदिध्यासन में विशेषरूप से भगवान का वाह्याभ्यन्तर प्राकट्य होता है इसका निर्णय करेंगे । भगवान को वाह्य प्रकट स्थिति और आन्तरिक लोला प्राकट्य में श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन और बंदन आदि. छः साधन चित्त समाधान के श्रौत सम्मत साधन हैं । इन साधनों का पालन करने से निश्चित ही सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं इनके पालन में धर्म अधर्म का 'भय नहीं होता । अग्निहोत्र इत्यादि कार्यों को करने वाले संन्यास लेकर ही मोक्ष प्राप्त कर पाते हैं । श्रवण आदि छः साधनों का आश्रय लेकर उपासना करने वाले, प्रारब्ध भोग के समाप्त हो जाने पर मुक्त हो जाते हैं । इत्यादि बातों का निर्णय सूत्रकार ने इस अध्याय के प्रथम पाद में किया है द्वितीय पाद में, लिंग शरीर की नाडी से उत्क्रान्ति भी बतलाई गई है, इसमें दिन अयन आदि किसी की अपेक्षा नहीं होती यह विशिष्ट गति है । तृतीय पाद में, क्रम मुक्ति का उल्लेख है जिसके अनुरूप जो मार्ग है, उसी को श्रुति मत से निर्णय किया गया है, अनुरूप मार्ग के निर्धारण में अन्य मार्गों की अप्राप्ति की भी चर्चा है । एकमात्र परम ब्रह्म ही गन्तव्य स्थान हैं, लोक कार्य प्राप्य नहीं हैं, इस दृष्टि से पुष्टि और मर्यादा भेद से, चतुर्थ पाद में फल का विवेचन किया गया है । परमात्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है उसकी अनवद्यता का वर्णन किया गया है, सारा विश्व उसकी नित्य लीला है अतः वह प्रभु पूर्ण गुण वाले हैं, इत्यादि निर्णय अन्त में हो जाता है । ___ अस्यफल प्रकरणत्वेऽपिसाधनरूपस्यापि श्रवणस्यान्तरंगत्वं ज्ञापयितु तन्निर्धारमप्याह
यह अध्याय फल प्रकरण है, श्रवण आदि इसके अन्तरंग साधन हैं, इस बात को बतलाने के लिए उन पर विचार प्रस्तुत करते हैं। १ अधिकरण :
आवृत्तिरसकृदुपदेशात् ।४।१।१॥ __"आत्मावाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्योमन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' इत्यादि वाक्यविहितं श्रवणादिकं किं सकृदेव कर्तव्यं उत् असकृत् इति भवति संशयः । कि तावत् प्राप्तं, सकृदेवेति । तावत वशास्त्रार्थस्यसंपत्तेः न च तण्डुलनिष्पत्ति फलकावघातस्येव दर्शनफलकानां श्रवणादीनां तत् सिद्धिपर्यन्तं आवृत्तिन्यायप्राप्तेति वाच्यम् । अवघातस्य वितुषीकरणात्मकदृष्टद्वारकत्वेनतथात्वमस्तु