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( ५१९: .. सर्वापेक्षा च यज्ञादिश्रुतेरश्ववत् ३।४।२५॥ .. : ...
उक्तन्योयेन ज्ञान प्रति कर्मणः फलोपकारित्वाभावेऽपि स्वरूपोपकारित्वमस्ति न वेति चिन्त्यते । तत्र नेति पूर्व पक्षः । गुरुपसत्तितदुपदेश रेवतत् संभवादाचार्यवान् पुरुषोवेदेति श्रुतेः अत्र सिद्धान्तमाह-सर्वापेक्षति-सर्वेषां कर्मज्ञानभक्तीनां पुरुषोत्तम ज्ञानोत्पत्तावस्त्यपेक्षा । अत्र प्रमाणमाह-यज्ञादि श्रुतेरिति यज्ञादि निरूपिका श्रुतिरेव प्रमाणंयत्. इत्यर्थः । इदमत्राकृतम् पुरुषोत्तम एव स्वतंत्रपुरुषार्थरूपस्तत्प्राप्तिरेवफलम् । तत्र प्रेम भक्तिजं. तज्ज्ञज्ञानमेव सायनमिति "ब्रह्मविदाप्नोति परम् "इत्यादिना" एतद् विदुरमृतास्ते भवंति “इत्यादि श्रुति सहस्रस्त प्रतिपाद्य ते । “अथेतरे दुःखमेवो. पयन्ति" इति श्र त्या ज्ञानरहितानां दुःखमात्र प्रप्तिरुच्यते । एवं सति स्वतोऽपुरुषार्थ रूपं यज्ञादिकं सर्वार्थतत्वप्रतिपादिका श्र तिः यन्निरूपयति तत्सर्वथा पुरुषार्थ साधनत्वेनैवेतिमन्तव्यम् । तच्च निकामतयं व कृतं तथा ।
अव विचार करते हैं कि-ज्ञान के प्रति कर्म की फलोपकारिता का तो अभाव है ही, स्वरूपोपकारिता है या नहीं? इस पर पूर्व पक्ष का कथन हैं कि-"आचार्य वान् पुरुषोवेद" इस श्रुति' से तो यही निश्चित होता है किगुरुशरणापत्ति और उनके उपदेश से ही स्वरूप प्राप्ति हो सकती है अतः कर्म की कोई अपेक्षा नहीं है। सूत्रकार का सिद्धान्त है कि-पुरुषोत्तम ज्ञान में, कमज्ञान भक्ति सभी की अपेक्षा है । यज्ञादि की निरूपिका श्रुति ही इसका प्रमाण है। पुरुषोत्तम ही स्वतंत्र पुरुषार्थ रूप हैं, उनकी प्राप्ति ही फल है प्रेमा भक्ति जन्य परमात्मज्ञान ही उस फलाप्राप्ति का साधन है। "ब्रह्म विदाप्नोतिपरम्" इत्यादि श्रुति से यही निष्कर्ष निकलता है "एतद्विदुरमृतास्ते भवति" इत्यादि हजारों श्रुतियाँ उक्त बात की पुष्टि करती हैं । "अथेतरे दुःखमेवोपयंति' श्रुति, ज्ञान रहित लोगों को दुःख प्राप्त होता है, ऐसा बतलाती है । इस प्रकार स्वयं अपुरुषार्थ रूप यज्ञ आदि सर्वार्थतत्वों की प्रतिपादिका श्रुति जो निरूपण करती है उसे, पुरुषार्थ साधक रूप से ही कह रही है, ऐसा मानना चाहिये, और वह साधन निष्काम रूप से ही होता है, ये भो मानना चाहिये।
अतएव वाजसनेयि शाखायां-"यथाकारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति, पापकारी पापो भवति "इत्युपक्रम्य पठ्यते -"तस्माल्लोकात् पुनरेत्यस्मैलोकाय कर्मण इति तु कामयमानो अथाकामयमानो