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- ( ५२६ ) अतस्त्वितरज्यायो लिंगाच्च ।३।४।३।। ___ अत इति पूर्वोक्त श्रुतिस्मृतिपरामर्शः। तथा चेतरस्था मुक्तेरपि भक्तिमार्गीय तदीयत्वमेव ज्याय इत्यर्थः । अत्रहेत्वन्तरमाह-लिंगाच्चेति-मुक्तानां तु मायाविनिमुक्तमात्मस्वरूपमेव, न तु-देहेन्द्रियादिकमप्यस्ति येन भजनानंदानुभवः स्यात् । भक्तानां तु देहेन्द्रियादिकमपि मायातत्कार्यरहितत्वेनानन्द । रूपत्वेन च भगवदुपयोग्यतोऽपि तत्तथेत्यर्थः । न हि मुक्तात्मनां कश्चन् भगवदुपयोगोऽस्तीति भावः । तदुक्तं श्रीभागवते-"न यत्र माया किमुताऽपरे हरेरनुब्रता यत्र सुरा सुराचिंता" इत्यादि । मुक्तोपसृप्यत्वं चोच्यते । अतएव सप्तम स्कन्धे-देहेन्द्रियासु हीनानां वैकुण्ठ पुरवासिनामित्युक्तम् । पुरवासित्वे देहादेरावश्यकत्वान्निषेधो जडात्मकानामेवेत्यवगम्यते । इतरज्याय इति पाठेतु-पूर्वोक्तआश्रमकर्मपरामर्शोऽत इत्यनेन उक्तयोरेव वा । एतेन "सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता" इत्युक्तफलवत्वं तस्य सूच्यते । ___अन्य प्रकार की मुक्तियों से भक्तिमार्गीय मुक्ति श्रेष्ठ है क्योंकि वह तदीय हैं । अन्य मुक्त जीव, माया रहित केवल आत्मस्वरूप ही होते हैं उनमें देह इन्द्रिय आदि तो होते नहीं जिससे वे भजनानंद का अनुभव कर सकें। भक्तों की तो मुक्तावस्था में, माया और मायाजन्य कार्यों से रहित, आनन्दरूप दिव्य देह इन्द्रिय आदि भगवदुपयोगी वस्तुएँ रहती हैं, जिससे वह भजनानंद की अनुभूति कर सकता है अन्य मुक्त जीवों की कोई भी वस्तु भगवदुपयोगी नहीं होती। श्रीभागवत में-"न यत्र माया किमुताऽपरे" · इत्यादि में, भक्त जनों की दिव्य स्थिति का उल्लेख किया गया है। सप्तम स्कन्ध भागवत में वैकुण्ठ पुरवासी जीवों का देह इन्द्रियादि राहित्य बतलाया गया है । वैकुण्ठ पुरवास की स्थिति में वे सब जडात्मक हैं । इतर ज्याय का तात्पर्य है किआश्रम आदि धर्मों से भगवद्धर्म जैसे श्रेष्ठ है वैसे ही अन्य से भक्ति मार्ग और भक्तिमार्गीय मुक्ति श्रेष्ठ है क्योंकि इस स्थिति में-"वह भक्त ब्रह्म के साथ समस्त कामों का उपभोग करता है" इत्यादि विशेषता है । ४ अधिकरण :तद् भूतस्य तु नातभावो जैमिनिरपि नियमात रूपामाभ्यः ।
३।४।३९।।
अथेदं विचार्यते तदीयानामपि कदाचित् सायुज्यमस्ति न वेति । तत्र भक्तिमार्गस्यापि साधन रूपत्वात्तस्य च मुक्तावेव पर्यवसानात् तदीयत्वस्य