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की मानसिक वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं । इससे निश्चित हुआ कि पुष्टिमार्गीय भगवद् भजन ही श्रुति का तात्पर्य है। जो भगवत् साक्षात्कार के लिए अत्याकुल भक्त हैं, उनके लिए त्याग का निरूपण करके बाद में गृहिणोपसंहार के तात्पर्य का निरूपण किया गया है, उससे निश्चित होता है कि-उत्कट भाव वाले भक्तों के लिए त्याग आवश्यक है। जिनमें वैसा उत्कट भाव नहीं है उन्हें घर में ही भगवत भजन करना चाहिए। उन्हें उसी से भगवत्प्राप्ति होगी, यही, इस सूत्र से, व्यास जी का आशय प्रतीत होता है। जब तक उत्कट भाव . न होगा तब तक त्याग धर्म का निर्वाह संभव नहीं है। कुछ भक्त, भगवान से भाषण और उनकी लीला के दर्शन के बिना रह नहीं सकते अतः वे उत्कट भाव में विभोर होकर, घर छोड़कर, वन चले जाते हैं । आत्रेय और औबुलोमि ने भगवान के अवतार के समय के ही भक्तों की दशा का उल्लेख किया है वे सभी फलमार्गीय भक्त थे, बाजसनेयि में साधन मार्गीय भक्तों की चर्चा है । अतः कोई विरुद्धता नहीं है।
मौनवदितरेषामप्युपदेशात् ।३।४।४८॥
किंच संन्यासिन आवश्यका ये धर्मास्ततोऽधिकास्ते गृहिणः सिद्धयन्ति इत्यतोऽपि हेतोस्तेनोपसंहारः कृतः, इत्याशयेनाह-मौनवदित्यादि । मौनपदमनीहानि लायामादित्रिदण्डिधर्मोपलक्षकम् । यथा वागिन्द्रियमात्रदेहमात्रचित्तमात्रनियामकाःते धर्मा उक्ता, न्यासिनस्तथेतरेषामपि इन्द्रियनियामकानां धर्माणामात्मनि सर्वेन्द्रियाणि संप्रतिष्ठाप्य,इति श्रुत्या गृहिण उपदिश्यंत इति युक्तो गृहिणोपसंहार इत्यर्थः। तत्र नियमन मात्रम्, अत्र तु भगवति विनियोगात् आधिक्य मिति भावः । वस्तुतस्तु केवलनियमनस्याप्रयोजकत्वात्तत्रापि भगवति विनियोग एवं तात्पर्य मिति ज्ञेयम्।
"मौनवदितरेषाम्" इत्यादि सूत्र से सूत्रकार सूचित करते हैं कि संन्यासियों के जो आवश्यक धर्म हैं, उनसे भी अधिक गृही के त्याग धर्म हैं, इसलिए भी गृही में समस्त आश्रम धर्मों के उपसंहार की बात कही गई है। सूत्र में प्रयुक्त मौनपद अकिंचन गृह त्यागी त्रिडण्डी के धर्म का उपलक्षक है। त्रिडण्डो तो, वाणी मात्र, देह मात्र, चित्तमात्र का नियमन करता है, किन्तु गृही समस्त इन्द्रियों को भगवान में लीन कर देते हैं, "आत्मनि सर्वेन्द्रियाणि संप्रतिष्ठाप्य" श्रुति में ऐसा स्पष्ट कहा गया है, गृही में समस्त का उपसंहार ठीक ही किया गया है। त्रिडण्ड संन्यास में तो संयमन मात्र होता है किन्तु गृहस्थ का सब