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( ५४२ ) कुछ भगवान में ही विनियोग होता है, अतः त्याग से गृहस्थ अधिक है। वास्तव में केवल नियमन से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, इसलिए भगवद् विनियोग के तात्पर्य से गृहिणोपसंहार की बात कही गई है।
अनाविष्कुर्वन्नन्वयात ३।४।४९।।
ननु भगवति सर्वेन्द्रिय विनियोगात् गृहिणोपसंहार इति न युज्यते । शुचौ देशे स्वाध्यायमधीयान इत्यादि कर्ममार्गीय साधनश्रुतेरित्याशंक्य तत्तात्पर्यमाहअनाविष्कुर्वन्निति । भगवद्भावस्य रसात्मकत्वेन गुप्तस्यैवाभिवृद्धिस्वाभावकत्वादाश्रमधमरेव लोके स्वंभगवद्भावमनाविष्कुर्वन भजे ति इत्येतदाशयेन ते धर्मा उक्ताः । गोपने मुख्यं हेतुमाह अन्वयादिति अत्र ल्यव्लोपे पंचमी, एतेन यावदन्तः करणे साक्षात् प्रभोः प्राकट्यं नास्ति तावदेब वहिराविष्करणं भवति । प्राकट्ये तु न तथा संभवतीति ज्ञापितम् ।
भगवान में समस्त इन्द्रियों के विनियोग की दृष्टि से गृहिणोपसंहार की बात समझ में नहीं आती क्योंकि-"शुचौ देशस्वाध्यायमधीयानः" इत्यादि श्रुति तो कर्ममार्गीय साधन का उल्लेख कर रही है। इस शंका पर उक्त श्रति का तात्पर्य बतलाते हुए “अनाविष्कुर्वन्" सूत्र प्रस्तुत करते हैं । कहते हैं कि-भगवद्भाव रसात्मक है, अतएव गुप्त रहने से ही उसकी अभिवृद्धि होती है, आश्रम धर्मों का पालन करते हुए भगवद्भाव को प्रकट न करके ही भजन करना चाहिए । इसी आशय से कर्ममार्गीय धर्मों का उल्लेख किया गया है। प्रकार के गोपन में अन्वय ही मुख्य हेतु है, गुप्तभाव से भगवान के साथ अन्वय संबंध स्थापित करके भक्त स्थित रहते हैं जब तक अन्तः करण में साक्षात् प्रभु का प्राकट्य नहीं हो जाता तभी तक बाहरी दिखावा चलता है, ज़ब प्राकट्य हो जाता है तब वो दिखावा संभव नहीं है, · यही भाव उक्त श्रुति से प्रकट होता है।
ऐहिकमप्रस्तुत प्रतिबन्धतदर्शनात् ।३।४।५०॥
वैदिक कर्म करणे तात्पर्यमुक्बा लौकिकस्यानावश्यकत्वेऽपितत्समयमाहप्रस्तुतं प्रभु भजनं तत्प्रतिबंधासंभव एव ऐहिकं कर्म कार्यम् । ननु ऐहिक कर्मास्तु मा वा, अतस्तत्समयोक्ति व्यर्था-इत्याशंक्याह-प्रस्तुतं प्रभु भजनं तदूदर्शनादिति । आचार्य कुलादित्युपकम्याने पठ्यते "धार्मिकान् विदधति" इति