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इति व्यास हृदयमिति ज्ञायते । उक्तभावाभावे त्यामधर्म अनिर्वाहात् इति । केचन भक्ता भाषणादि लीलादर्शनं स्थातुमशक्ताः प्रचुरभावविवश शिया गृहाँस्यक्त्वा वनं गच्छन्ति आत्रेयोडुलोमियाँतु भगवदवतार सामयिक भक्तदशोक्ता । एते सर्वे फलमार्गीयाः । वाजसनेयि उक्तास्तु साधनमार्गीया इति नानुपपत्तिः काचित् ।
" बहिस्तूभयथा" इत्यादि सूत्र से भगवदीय जनों के गृह त्याग को आवश्यक बतलाया गया । छांदोग्य में "आचार्यकुलात्" इत्यादि उपक्रम करते हुए छांदोग्योपनिषद् के अंत में – आचार्य कुल से वेद पढ़कर गुरु दक्षिणा आदि से निवृत होकर समावत'न संस्कार करने के बाद पवित्र कुटुम्ब में स्वाध्याय करते और कराते हुए आत्मा में समस्त इन्द्रियों को स्थित करके, प्राणिमात्र में अहिंसा की भावना रखते हुए जीवन पर्यन्त रहने वाला ब्रह्मलोक प्राप्त करता है, पुनः नहीं लौटता पुनः नहीं लौटता" इत्यादि प्रवृत्ति परक वाक्य हैं, “ब्रह्मलोकमभिसंपद्यते” इस पूर्णता बोधक वाक्य से गृहस्थ में ही कृतार्थता बता दी गई है ।
वाजसनेमिशाखा में “ब्राह्मण अनूचाना विद्वांसः प्रजां न कामयन्ते" इत्यादि उपक्रम करके “भिक्षाचर्यां चरन्ति" ऐसा पाठ आता है। इस प्रकार उपसंहार में विकल्प है, यदि तात्पर्य निकाला जाय तो गृहस्थाश्रम में ही विधिवत आश्रम धर्म का पालन करते हुए, ब्रह्म प्राप्ति कर सकते हैं, वाजसनेयि में त्याग संबंधी चर्चा है, वह तो स्तुति परक ही है । इस मत पर सूत्रकार उपर्युक्त सूत्र प्रस्तुत करते हैं, उनका कथन है कि वाणी और मन से सब कुछ भगवान में समर्पण करना त्याग है, इन्द्रियों के विषयों के त्याग की कोई चर्चा नहीं है । गृहस्थाश्रम में हर प्रकार का भजन संधता हैं, सारा परिवार कृतार्थ हो जाता हैं, भजन में सर्वात्म भाव हो जाता है, यही बात " आत्मनि सर्वेन्द्रियाणि संप्रतिष्ठाप्य” इत्यादि उपसंहार में कही गई है। इस वाक्य में आत्मा पद भगवत्परक है । कर्म मार्गीय गृहस्थों के लिए उक्त व्यस्था नहीं है सूत्रस्थ तु शब्द का यही तात्पर्य है । सारांश ये है कि – कपिलमुनि के कथनानुसार भक्ति मार्ग अनेक प्रकार का है, उनमें से कुछ भक्त अपने घर में ही स्नेह पूर्वक भगवद विग्रह की विविधोपचारों से सेवा करते हुए, उसी के सहारे सांसारिक वासनाओं से निवृत्त हो जाते हैं, और मुक्ति को भी तुच्छ समझते. हैं । जैसा कि भागवत में कहा भी है- 66 "भगवान की सेवा में अनुरक्त भक्तों