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कोई भक्त आधिकारिक स्वर्ग आदि फल में आसक्ति रखना पतन मात्र मानते हैं, वे स्वर्ग आदि को हेय दृष्टि से नहीं देखते फिर भी वे तपपूर्वक प्राप्त उन लोकों को भक्ति रहित होने से पतन ही कहते हैं । उन लोकों के अधिकार समाप्त होजाने पर भगवद् कृपा की आशा कभी-कभी होती है, अतः वह उपपतन ही है । मुक्तावस्था में तो पुनः लौटने की बात ही नहीं है, भक्ति रस की आशा भी नहीं है अत: वह तो महापतन है । वह तो निषिद्धकर्म फल की तरह होता है । यही बात भागवत में कही गयी है — "भगवद् भक्ति में संलग्न व्यक्ति किसी से नहीं डरते, वे स्वर्गं अपवर्ग और नर्क सबको समान समझते. हैं ।" भक्ति मार्ग में तो साक्षात् संग के अभाव भी, भगवद्भाबमात्र को साक्षात् भगवद् स्वरूप भोग की तरह मानने हैं । भागवत षष्ठ स्कंध के नवम् अध्याय में "अथ ह वाव तव" इत्यादि से ऐसा स्पष्ट कहा गया है । जीव, साक्षात् भगवद् भोग कर भी नहीं सकता, इस शंका के निवारण के लिए सूत्र - कार " तदुक्तम् का प्रयोग करते हैं अर्थात साक्षात् भगवद् भोग की बात तो " वह विद्वान समस्त कामनाओं का ब्रह्म के साहचर्य से भोग करता है" इत्यादि श्रुति में स्पष्ट कही गई है ।
६ अधिकरण :
बहिस्तुभयथापि स्मृतेराचाराच्च २|४|४२ ||
अथेदं चिन्त्यते, प्रचुरभगवद्भाव मात्रवतः साक्षात् स्वरूप भोगवतो व गृहत्यागः कर्त्तव्यो न वेति, फलस्य सिद्धत्वान्न ति पक्षव्यच्छेदाय मद्वार्त्ताया तयामानां न बंधाय गृहामता" इति वाक्यात् बंधकत्वेन त्याज्य इति पक्षब्यच्छेदाय तु शब्दः । भावमात्रे साक्षात् प्रभु संबंधे वोभयथापि गृहाद्वहिर्गमनं गृहत्याग इति यावत । स आवश्यकः तत्र प्रमाणमाह - स्मृतेरित्यादि । त्वं तु सर्वं परित्यज्य स्नेहं स्वजनबन्धुषु मय्यावेश्य मनः सम्यक् समदृग् विचरस्वगाम," इत्यादि स्मृतिर्भगवद् भाववत सत्संगाविशिष्टस्यापि वहिर्गमनमाह तदाचारोऽपि तथैव श्रुतस्तथा । अथयमाशयः । आश्रमधर्मत्वेन गृहत्यागी " यदहरेव" इत्यादि पूर्वमुपादितोऽपि तदधुनापुनरुच्यते तेनतदतिरिक्तोऽयमिति ज्ञायते । तथा चोक्तवाक्यान् मुमुक्षुमुक्तिप्रतिबंधकत्वाभावेऽपि व्यासंगस्य तत्रावश्यकत्वादुक्तो-भयोरप्यनवरतं प्रभुरसास्वादे प्रतिबंधकत्वेन तस्य तत्यागस्य विप्र योगरसानु - भावकत्वेन स च कर्त्तव्यः । यद्यपि स्वेष्टान्तरायत्वेन स्वत तत्त्यागो भावी