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के साथ आ जावें उस समय, भागवत धर्मों का ही मुख्यतया पालन करना चाहिए । श्रुति और स्मृति दोनों का ऐसा ही मत है । श्रुति में जैसे"तमेव धीरं विज्ञाय", तमे वैकं जानथमात्मानम्" इत्यादि वाक्यों में, एवकार से भगवदतिरिक्त कर्मों का प्रतिषेध करके भगवद् विषयक ज्ञान के अनुकूल प्रयत्न श्रवण की महत्ता बतलाकर "प्रज्ञां कुर्वीत" से स्मरण के भी महत्व का उल्लेख कर बतलाया कि परमात्मनिष्ठ शब्दों की ही आवृत्ति और अनुसंधान करना चाहिए “नानुध्यायात् बहून्" से अन्यों के ध्यान का निषेध किया गया है । इसमें अनु उपसर्ग से ध्यान को पश्चाद् भावी बतलाया गया हैं । ध्यान की योग्यता के लिए, श्रवण कीर्तन पूर्व भावी निश्चित होते हैं । स्मृति में भी जैसे-"शृण्वन्तिगायन्सि" "महात्मानस्तु मां पार्थ" "सततं कीर्तयन्तो माम्" इत्यादि वाक्यों में, भगवद् धर्मों को अंतरंग आत्मधर्म के रूप में तथा आश्रम धर्मों को बहिरंग देहधर्म के अविरुद्ध रूप से पालन करना चाहिए, यही दिखलाया है। इस प्रकार भगवद् धर्मों की समता में अन्य धर्मों का प्रतिषेध करके उन्हें सबसे श्रेष्ठ बतलाने के लिए “स वा अयमात्मा"" इत्यादि से भगवद् माहात्म्य दिखलाया गया है ।
अनभिभवं च दर्शयति ।३।४।३४ ।।
.' प्राधान्येन भगवद् धर्मा एव कतव्या इत्यत्रोपोद्वल कान्तरमनेन उच्यते"सर्व पाप्मानं तरति, नैनं पाप्मा तरति, सर्व पाप्मानं तपति, नैनं पाप्मा तपति" इत्यादिना भगवद्धर्मानुरोधेन आश्रमकर्माकरणजदोषैरनभिभवं च श्रुतिदर्शयति अतो भगवद्धर्मा एव सर्वेभ्य उत्तमानि साधनानीत्यर्थः ।
प्रधान रूप से भगवद्धर्म ही कर्तव्य है, ऐसा निर्णय करने के बाद अब बतलाते हैं कि-"सर्व पाप्मानम्" इत्यादि श्रुति दिखलाती है किभगवद्धर्म के पालन से आश्रम कर्म जन्य दोषों का निराकरण हो जाता है, इसलिए भगवद् धर्म ही सर्व श्रेष्ठ साधन हैं ।
अन्तरा चापि तु तदृष्टेः ।३।४।३।।
भगवद् धर्मभ्य आश्रम धर्मा हीना इत्यप्यल्पमुच्यते, अपि तस्मिन् पुरुषोत्तमे धर्मिण्येव दृष्टिस्तात्पर्य यस्य पुसः तस्याश्रम धर्मा अन्तरा च फलसिद्धी व्यवधानरूपाश्चेति श्रुतिः दर्शयति इति पूर्वेण संबंधः । अन्तरा शब्दोऽत्राव्ययात्मको–व्यवधानवाचकः । तथा च श्रुतिः--"एतद् ह स्म वै तत्पूर्व ब्राह्मणा'