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हैं कि ज्ञानी के लिए आश्रमकर्म कर्त्तव्य है या नहीं इस पर पूर्व पक्ष वालों का कथन है कि जब ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब कृत कर्म का नाश हो ही जाता है, अतः उनको पालन करने का प्रयोजन ही क्या है ? इसलिए उनका पालन कर्त्तव्य नहीं है । इस पर सिद्धान्त रूप से सूत्र प्रस्तुत करते हैं—
३. अधिकरण :
विहितत्वाच्चाश्रम कर्माऽपि | ३ | ४ | ३१ ॥
यथा ज्ञानिनामप्यनापदि शिष्टानामेवान्न भक्षणीयं विहितत्वात् तथाश्रम कर्माSपि व्यमैव नित्यं विहितत्वादित्यर्थः । यथाऽनापद्यशिष्टान्नभक्षणं दोषाय; निषिद्धत्वाद् एवच्चोपपादितं सर्वान्नानुमतिरित्यत्र । तथा नित्य त्यागोऽपि प्रत्यवायजनक इति तत् कर्त्तव्यमैवेति भावः ।
जैसे कि - ज्ञानियों के लिए भी अनापत्ति में शुद्धान्न भक्षण ही विहित बतलाया गया वैसे ही आश्रमकर्म भी कर्तव्य रूप से नित्य विहित हैं । जैसे कि-- बिना आपत्ति के कदन्न भक्षण को दोष कहा गया है, वैसे ही बिना कारण आश्रम कर्म का त्याग भी दोष कहा गया है, सबको इनके अनुमति नहीं दी गई है । आश्रम कर्म नित्य आचरणीय हैं इनके `प्रत्यवायजनक कहा गया है इसलिए इनका पालन कर्त्तव्य है ।
त्याग की
त्याग को
यच्चोक्तं कृतस्यापिनाश्यत्वेनाप्रयोजकत्वान्न कर्त्तव्यमिति तत्राह -
जो यह कहा कि किये हुए कर्म भी ज्ञान से नष्ट हो जाते हैं अतः वे निष्प्रयोजन होने से अकत्तव्य हैं, उसका उत्तर देते हैं
सहकारित्वेन च | ३ | ४१३२ ॥
शमदमादीनामन्त रंगसाधनानां
सहकारीण्याश्रमकर्माणीत्येतद् रहितैः शमादिभिरपि ज्ञानं न स्थरीकत्तु शक्यमिति तानि कत्त व्यान्येवेत्यर्थः । -संसार वासनाजनकत्व स्वभावो यः कर्मणां स ज्ञानेन नाश्यत इति न सहकारित्वेऽनुपपत्तिः काचिदिति भावः ।
शमदम आदि अंतरंग साधनों के सहकारी आश्रम कर्म होते हैं, इनके बिना शमदम आदि भी ज्ञान को स्थिर करने में समर्थ नहीं होते, अत: वे