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( ५२१ ) ननु ज्ञान द्वारा कर्मादीनामेवफलसाधकत्वमस्तु इति शंका निरासाय दृष्टान्तमाह-अश्ववदिति-यथा स्वेष्ट फलसाधक देशव्यवधानात्मक देशातिक्रमेऽश्वस्य साधनत्वं, न तु तत्तत्फलम सिद्धावपि तथाधिभौतिकाध्यात्मिकाधिदैविकप्रतिबन्धनिवृत्तावेवतेषां साधनत्वं, नतु भगवत् प्राप्तावपीत्यर्थः ।। इदंच मुमुक्षु भक्तविषयकमिति ज्ञेयम् । आत्यन्तिक भक्तिमतां भक्तीतरानपेक्षणात् ।
ज्ञान द्वारा कर्म आदि की भी फलसाधकता है क्या ? इस शका को निरास करने के लिये दृष्टान्त देते है-अश्ववत्-जैसे कि अपने अभीप्सित स्थान में जाने के लिये अश्व की साधनता है स्थान पर पहुंच जाने पर उसकी साधनता समाप्त हो जाती है उसका कोई महत्व नहीं रहता, वैसे ही, आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक प्रतिबन्धों के निवत्त हो जाने पर कर्म आदि की साधनता भी समाप्त हो जाती है । भगवत्प्राप्ति में उनकी कोई साधनता नहीं होती । इनकी साधनता भी मुमुक्षु भक्तों के लिये ही होती है । जो निष्काम भाव में एक मात्र भक्ति के लिये ही भक्ति करते हैं, उन्हे भक्ति के अतिरिक्त किसी की अपेक्षा नहीं होती। शमदमा पेतः स्यात तथापि तु तद्विधस्तदंगतया तेषामवश्यानुष्ठेय
त्वात् ।३।४।२६॥
ननु-"तस्मादेवं विच्छान्तोदान्त" इत्यादिना शमादेरेव ज्ञान साधनत्वमुच्यते, न तु यज्ञादेरितिचेत् तत्राह-शमदमाद्युपेतो भक्तिमार्गेऽपिस्या-- देव, यद्यपि तथापितदंगतया "आत्मन्येवात्मानं पश्येत्” इति ज्ञानमार्गीय ज्ञानांगतयैव शमादिविधि तोनिमार्गे तेषामवश्यानुष्ठेयत्वात् तथा विधिरि-- त्यर्थः। भक्तिमार्गे स्वत एव शमादीनां संभवेऽथावश्यकत्वं न तेषामिति भावः।
"तस्मादेवं शान्तोदान्तः' इत्यादि में शमदम आदि को ही ज्ञान के साधन रूप से बतलाया गया है, यज्ञ आदि को तो उसका साधन नहीं कहा गया है । इसका उत्तर देते हैं कि-शमदम आदि से युक्त भक्ति मार्ग में भी जैसे उसके अंग रूप से शमदमादि अनुष्ठान की विधि है ।" आत्मन्येवात्मानं पश्येत'' इस ज्ञानमार्गीय साधना में ज्ञानांगरूप से शमदम आदि विधि के लिये यज्ञादि के अनुष्ठान की भी उसी प्रकार आवश्यकता है । भक्ति मार्ग में तो