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( १९३ ) स्वीकारते हैं। यदि ज्ञानी कर्म नहीं करते तो कर्म संबंधी गुणदोष न लगने की जो बात आपने कही है वह कैसे संगत होगी । ज्ञानियों में भी कर्म कृत गुणदोषों का संबंध है, इस बात को बतलाने के लिये ही सूत्रकार मात्र पद ' का प्रयोग कर रहे हैं । 'मात्र ऐसे विशेष प्रयोग से अन्य साधारण का स्वतः ही परिहार हो जाता है । तथा ये भी कहना ठीक नहीं है कि-ज्ञानी कर्म करता हैं अतः ज्ञान की कर्म शेषता स्पष्ट हैं । परमात्मा का ज्ञान हो जाने के फलस्वरूप कर्मफल से संबंध नहीं रह जाता, ज्ञान के पूर्व लो वे विधेय हैं ही।
न हि यस्यः कर्मणो ज्ञानस्य वा यत्कलं तदुक्तिरपि स्तुतिरेवेति युक्यतम् तयोरुच्छेदापत्तेः । विधिहि प्रवर्तकः । तस्य पुरुषप्रवृत्युपंयोग्यर्थ कथनेनंव चारितार्थ्यादन्यार्थकथनस्य स्तुतित्वमस्तुनाम । न ह्य वं प्रकृते । मुमुक्षोः कर्मबन्धाभावप्रेप्सोस्तत्साधनत्वज्ञान एवं प्रवृत्ति संभवात् । यच्च कर्मफलसंबंधनिषेधानुपपत्या कर्म सम्बन्ध इत्युक्तम् । तन्न साधीयः । न हि तरणौ तमः कार्याभाव इत्युक्ते तत्प्राप्तिरपि संभवति अथवा पुरुषोत्तमज्ञ नि मुख्यफलस्याति महत्वेन साक्षात्वक्तुमशक्यत्वं ज्ञापयन्ती कै मुतिकन्यायेन परम्परया तदाहानयर्चा "तं विदित्वा ब्राह्मणो भवति" इति श्रुते ब्राह्मणपदेन ब्रह्मविदुच्यते । तथाचाद्यपदेन बुद्धिस्थ ब्राह्मण माहात्म्योद्देशे कृते, स क इत्याकांक्षायामाह"तं ब्राह्मण' विदित्वा विहित निषद्धफलासंबंधी भवति "इति लक्षण इत्यर्थः । साक्षात् भगवद्विदः किमु वाच्यम् ? इति भावः । अतस्तस्यैवतच्छब्दस्य पूर्व परामर्शित्वाद् ब्राह्मणस्यैव भगवविदो भक्तस्य व पदवित् स्यात् । तज्ज्ञानानुकूलप्रयत्नवान् स्यात् तद्भजेत् इति यावत् तथा च यत्र भक्लविद विषयक ज्ञानस्याप्युक्तरीत्या न कर्मशेषत्वं वक्तुं शक्यं, तत्र भगवज्ञानस्य तथात्वं दूर दूरतरमिति सर्व सुस्थम् ।
जिस ज्ञान या कर्म का जो फलोल्लेख है वह स्तुतिमात्र ही है ऐसा कहना ठीक नहीं है, ऐसा मानने से तो उनको मान्यता ही समाप्त हो जावेगी। किसी वस्तु की विधि ही उस वस्तु की प्रवर्तक होती है, पुरुष प्रवृत्योपयोगी कथन में ही उसको चरितार्थता है, स्तुति तो अन्यार्थ कथन को कहते हैं । उक्त ज्ञान कर्म के फल को स्तुति नहीं कह सकते । मोक्ष को भावना भी जभी संभव है जब कि-कर्म ज्ञान के फल के वास्तविक बन्धन. का ज्ञान हो जब फल स्तुतिमात्र होगा तो मुमुक्षुत्व भाव होगा ही क्यों ? जो यह कहा कि कर्म फलसम्बन्ध का निषेधं संभव नहीं है अतः कर्म संबंध अवयं