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(( ४ ) को छोड़कर संन्यास ले लिया जाये यही संन्यास की विधि है, इससे कर्म में संलग्न होना ही निश्चित होता है, यही श्रुति का तात्पर्य है।
__ अपि च, ज्ञानकर्मणोरलौकिकफलसाधकत्वेन विहितत्वमेव प्रयोजकम् । अपरोक्ष ब्रह्म ज्ञानं च न विधेयम् । साक्षात्स्वकृत्यसाध्यत्वाचोदनाबोधकलिंगाद्यभावाच्च ज्ञानस्य न मुक्ति साधकत्वं वक्तं शक्यम् । “य एनं विदुः" इत्यादिस्तु यागेषु इज्य विष्णु स्तुति परेत्याशयेनाह-अचोदन चेति" । जैमिनिवत्तत्सहायभूतेयमचोदना च परामर्शमपवदतीति संबंधः । तथा च विधि संबंधात् कर्मवानुष्ठेयं, न तु मुक्ति साधनमप्यतथात्वादिति स्थितम् । .. एक बात और भी है कि-ज्ञान और कर्म को अलौकिक फलसाधक माने तो भी उनका प्रयोजन विधान से ही सिद्ध होता है। उनका तात्पर्य अपरोक्ष ब्रह्म से नहीं है। ज्ञान स्वतः तो होता नहीं, उसके लिए श्रुति में चोदना बोधक श्रुति आदि का भी अभाव है, इसलिए ज्ञान को मुक्ति साधक नहीं कह सकते । “य एनं विदुः" इत्यादि श्रुति तो, यागों में इज्य विष्णु की स्तुति परक आशय को प्रकट करती हैं यही बात सूत्र में "अचोदना च" पद से बतलाई गई है। जैमिनि की तरह, उनकी सहायक यह अचोदना भी उक्त परामर्श का खण्डन करती है। ज्ञान से विधि का संबंध होने से, कर्म के अनुष्ठान की बात ही निश्चित होती है मुक्ति साधन होते हुए भी उसका वैसा महत्व नहीं है।
अनुष्ठेयं बादरायणः साम्यश्रुतेः ।३।४।१९॥
. बादरायण आचार्यों जैमिनेरपि गुरुस्तदेव कर्तव्यं इति शिष्य संमतमनुष्ठेयं कर्मापवदवतीति पूर्वेण संबन्धः । तत्रहेतुः साम्यश्र तेः। यथा “वीरहा एव देवानां" इति श्रु त्या कर्मत्यागकर्तुं निन्दा श्रु यत, एवमेव भगवज्ज्ञानरहितस्यापि सा श्र यते यतः । तथाहि- "असुर्यानाम ते लोका अंधेन तमसावृताः, तांस्तेप्रेत्याभिगच्छंति अविद्धांसोऽबुधाजनाः।" एतदने-'ये तद् विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवोपयन्ति' इत्यादिरूपा । एतच्चे निन्दामात्रेण साम्यमुक्तिमापाततः । वस्तुतस्तु–'तमेतं वेदानुवचनेन विविदिन्ति ब्रह्मचर्येण तपसा श्रद्धया यज्ञेनानाशकेन चैतमेव विदित्वा मुनिर्भवत्येतमेव प्रवाजिनो लोकमभीप्सतः प्रब्रजन्ति" इति श्रु त्यो ज्ञानसाधनत्वेनैवाश्रमकर्म करणोंवत्तेश्च न स्वातंत्र्यं कर्नोवक्त्तुं शक्यम् । अतएव शुकस्य न ब्रह्मचर्यादिकमपि । फलस्य जातत्वेन तत्सा ..नपेक्षणात् ।