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( ५०२ ) ननु संन्यासेऽपि तदाश्रमीणं कर्मास्तोति वैराग्यसह कृतं ज्ञानमेतच्छेषभूतं, तदसहकृतं तदाग्निहोत्रादि शेषभूतमिति न वैपरीत्यमिति प्राप्त, आह-'शब्दे हि" इति । ज्ञान स्वरूपं तत्फलं न च युक्तिसिद्धं, किन्तु वेदमात्र सिद्धम् । तंत्रतु "तमेवं विद्धानमृत इह भवति", "ब्रह्मविंदाप्नोति परम्" इत्यादि वाक्य ब्रह्मज्ञानस्य मोक्ष एव फलं श्रूयते । सर्वसाधनानां साक्षात् परंपराभेदेन तत्रव पर्यवसानादतो धर्मिग्राहकमान विरोधात् संन्यासाश्रमीण कर्मशेषत्वमपि न वक्तं. शक्यमित्यर्थः।
यदि कहें कि-संन्यास में भी उस आश्रम के कर्मों का विधान है, वैराग्य सहकृत ज्ञान, इसी का शेषभूत है तथा वैराग्य रहित ज्ञान उन अग्निहोत्र आदि का शेषभुत है अतः कोई विरुद्धता नहीं है । इस पर सूत्रकार कहते हैं-'शब्दे हि" अर्थात् ज्ञान का स्वरूप और उसका फल, युक्ति से ही सिद्ध करने वाली वस्तु नहीं है, वह तो केवल वेद से ही सिद्ध होती है। "उसे इस प्रकार से जानने वाले यहीं अमृत हो जाते हैं, "ब्रह्मवेत्ता, परब्रह्म को प्राप्त करते हैं, "जो इस प्रकार जानते हैं वे अमर हो जाते हैं" इत्यादि वाक्य, ब्रह्म ज्ञान का फल मोक्ष ही बतलाते हैं। सभी साधनों का सीधा या परंपरा से उसी में पर्यवसान होता है, अतः धर्मिग्राहकमान विरोध से, संन्यास आश्रम के कर्म की कर्म शेषता भी नहीं कह सकते । ___ ननु एवं संन्यासययमिति चेन्न, ब्रह्मविदातिरिक्त संगस्य भगवद्विस्मारकत्वेनावश्यत्याज्यत्वेन श्रुत्या कथनादत एव-"वेदांत विज्ञान सुनिश्चितार्थाः,, इत्युत्ता "संन्यास योगात् यतयः शुद्धसत्वाः' इत्युक्तम् । अत्रपंचम्याइन्टः करणे संस्कारविशिष्टोपाधायकत्वं च प्रतीयते संन्यासस्य । स च संस्कारः फलोपकार्यगमित्यावश्यकः संन्यासो मर्यादामार्गे पुटिमार्गे त्वन्यैव व्बस्था । "न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह" इति वाक्यात् । । यदि कहैं कि-तब तो संन्यास व्यर्थ ही हो जायगा, सो बात न होगी, ब्रह्मवेत्ता के अतिरिक्त औरों का साथ भगवत् विस्मारक होता है अतः उन्हें अवश्य ही त्याग देना चाहिए यही बात "वेदांत विज्ञान" आदि कहकर "संन्यास योगात" इत्यादि से कही गई है । "संन्यास योगात" में किए पंचमी के प्रयोग । से, संन्यास को, अन्तःकरण में, संश्कार विशेष धायक्रता प्रतीत होती है। यह संस्कार फल का उपकारी अंग है, अतः मर्यादा मार्ग में संन्यास आवश्यक है। पुष्टिमार्ग को दूसरी ही व्यवस्था है। "इस. मार्ग में ज्ञान और वैराग्य से प्रायः कल्याण नही होता' इत्यादि पुष्टिमार्गीय व्यवस्था है। . . . . . :