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विपरीत कर्म को विधि रूप से कैसे वर्णन कर सकती है, शान, पुरुषार्थ साधक नहीं है, इस कथन को सहन न कर के बादरायणाचार्य ने बड़ी दृढ़ता से, इस सूत्र में अपने सिद्धान्त का निरूपण किया है।
एवं सति पूर्व काण्ड वैयर्यमापततीति तत्तात्पर्यमाहइस प्रकार तो पूर्वकाण्ड व्यर्थ हो जायगा ! इसपर कहते हैंविधिर्वा धारणबत् ॥३॥४॥२०॥
यथा योग शास्त्रे मनः समाधे देव साध्यत्वात् तत्साधनत्वेन मानस्याः मूर्तर्धारणं विधीयते, नतु स्वतंत्रया फल साधकत्वेन मनः समाधी तत्यागात् । "ततः किंचन न स्मरेत्, तच्यापिबड़िशं शनकवियुक्त, इत्यादि वाक्येभ्यस्तथा । तथा सति भक्तिसाधनत्वेनैवानुष्ठेयमिति तात्पर्येण कर्मविधिरुच्यते । न तु स्वतंत्रया फलसाधकत्वेन ।
जैसे कि योगशास्त्र में मनः समाधि से ही तत्त्व का साक्षात्कार होता है, उस साधन से ही मानसिक मूर्ति की धारणा होती है। मनः समाधि में यदि प्रतीक का त्याग कर दें तो, स्वतंत्र रूप से फल साधन संभव नहीं है। वैसे ही-भक्ति मार्ग में भी होता है-"ततः किंचन् न स्मरेत्', तच्यापि वडिशं शनवियुक्ते" इत्यादि वाक्य भक्तियोग के लिए वही बात करते हैं। भक्तियोग में साधन रूप से कर्म का अनुसरण करना चाहिए, इसी तात्पर्य से कर्म विधि बतलाई गई है। सवतंत्र रूप फल साधक रूप से कर्म का विधान नहीं है।
ननु तत्र समाधिमधिकृत्य यमादीन् युक्तानि इति तन्मध्यपातित्वेन धारणस्य तथात्वमुच्यते । प्रकृते ज्ञानं भक्ति वाऽधिकृत्य न कर्म विहितमिति दृष्टान्त वैशभ्यमिति चेत् । न, उक्तानुपपत्त्या स्बानिन्द्यमेव कर्मश्रुतिविधाति इत्यवशयं वाच्यम् । निन्दयां चेतरपदात् ज्ञान मध्यपातिन एव तद्विषयस्य प्राप्तेरावश्यकत्वात् । ____ यदि कहें कि समाधि में यम नियम आदि को उपादेयता है; उन्हीं में धारणा का भी महत्व है। ज्ञान या भक्ति में कर्म को तो कोई उपादेयता नहीं है, अतः ऊपर जो दृष्टान्त दिया गया वह सही नहीं है। सो बात नहीं है-उक्त अनुपपत्ति से, निश्चित होता है कि पूर्वकाण्डीय श्रुति अपने अनिद्यं कर्म का हो विधान करती है निन्दा का जहां प्रसंग है, वहाँ इतर पद का प्रयोग किया गया है इतर पद ज्ञान मध्य वाली विषय का वाची है।