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। ५०७ . ). एवमेव हि यागविधिनापि क्रियारूपयागस्य स्वानुकूल प्रयत्नाधीनत्वेन स प्रयत्न एव विधीयते, अन्याप्राप्तत्वात्, न तुक्रिया, तत्प्रयत्ने सति तस्याः स्वत एव संभवात् । . थद्यपि “अचोदना च" इत्यादि सूत्रावयव से चोदना बोधक लिंग आदि का अभाव, बाधक कहा गया है, फिर भी वह साधीय नहीं है क्योकि-श्रति साम्य है। जैसे कि- "इस प्रकार जानने वाले शान्त दान्त उपरत, तितिक्षु श्रद्धावान होकर आत्मा से आत्मा को देखते हैं।"
ऐसे भी नहीं कह सकते कि -प्रमाण वस्तु परतंत्र है अतः ज्ञान की विधेयता नहीं है। परमात्मा इतर ज्ञान की अवस्था में भी, जीवात्मा के अन्तः करण में आत्मारूप से अधिष्ठित परमात्मा के ही दर्शन होते हैं किसी अन्य के नहीं, श्रद्धापूर्वक अन्य साधनों से उसके दर्शन को स्वरूप योग्यता का संपादन होता है। आत्मा में अधिष्ठित, परमात्मा दर्शन के अनुकूल प्रयत्न विधान संभव श्रबण विधि से, श्रुति वाक्य जन्य शाब्द ज्ञानानुकूल प्रयत्न विधान की अनुभूति होती है। इसी प्रकार यागविधि से भी, कियारूप याग की स्वानुकूल प्रयत्नाधीनता है, वह प्रयत्न ही विधि है, उससे अतिरिक्त किसी अन्य की विधीयता मिलती भी नहीं। क्रिया भी विधि नहीं है, उसका प्रयत्न करने पर वह तो स्वयं ही हो जाती है।
___ अथवा, ननु यथा वीरहेति श्रुत्या कर्मत्यागो निद्यते तथैव, "असुर्यानाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः, तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति अविद्वांसो अबुधाजनाः ।" ये तद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दु:खमेवोपयन्ति" इत्यादि श्रुत्या भगवज्ञानाभावो निद्यते । एवं सति कर्मज्ञानानुकूलप्रतत्नयोविधेयत्वे मिथोविरोधादाधिकारिभेदेन विधेयत्वं वाच्यम् ।
जैसे कि-"वीरहा" इत्यादि श्रुति से कर्मत्याग की निंदा की गई है उसी प्रकार "मूर्य रहित तिमिराच्छन्न उस लोक में भगवद् ज्ञान रहित अज्ञानी जीव शरीर त्याग के बाद जाते हैं" जो उसे जानते हैं वे अमृत हो जाते हैं, जो नहीं जानते वे दुःख प्राप्त करते हैं" इत्यादि श्रुति से भगवद् ज्ञान के अभाव की निंदा की गई है। इस प्रकार कर्मज्ञान के अनुकूल प्रयासों की विधि से 'परस्पर जो विरोध है उसे अधिकारी भेद से विधेय मानना चाहिए।
न च "तांवत्, कर्माणि कुर्वति न निविद्येत यावत्" इति भगवद् वाक्यात्