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( ५१८ ) रागिणः कर्म विधीयते । तद्रहितस्य ज्ञानमिति वाच्यम् । “जनको ह वैदेहो बहुदक्षिणेन यज्ञेनेज" इति श्रुते।रागत्वेन प्रसिद्वस्यापि तस्य कर्मणि प्रवृत्तिर्या सा न स्यादाधिकाराभावात् । अथ जनक दृष्टान्तै कर्मणोंऽगित्व ज्ञानस्य तदंगत्वं वाच्यम् । तथा च ज्ञानवता कर्मानुष्ठेयमिति प्राप्ते प्रतिवदति'अनुष्ठेयं बादरायणः साम्यश्रु तेः" ज्ञानमंगं तदंगित्वेनानुष्ठेयं कर्मेति मतं बादरायणोऽपवदतीति पूर्वेणसंबन्धस्तत्र हेतुमाह-"साम्यश्रुतेः" इति । स्वतोऽपुरुषार्थ कर्म फलाथिनैवानुष्ठेयं, तथा च "एष नित्यो महिमा" इति श्रत्या ज्ञानवति विहित निषिद्धयोः कर्मणोः फलाजनकत्वेन साम्यं श्रूयत इति फलाथिप्रवृत्त्यसंभवन ज्ञानिनस्तथात्वाभावेन कर्मोच्छेद प्रसक्तया न ज्ञानस्यांगत्वं वक्त शक्यम् । कृषीबलस्य व्रीहिणां वपने भजनस्येव । तथा च ज्ञानिना प्रवृत्त्यसंभवेनान्येषां च अथेतरे दुःखमेवोपयन्तीति निन्दा श्रवणेन तथात्वात् सर्वार्थतत्त्वज्ञा श्रुति ज्ञानवहिर्भ तं कर्म कथं विदध्यादिति ज्ञानस्य पुरुषार्थाऽसाधकत्वोक्तिम् असहमानेनाचार्येण प्रौढ्या निरूपितम् ।
ब तक वैराग्य न हो तब तक कर्म करना चाहिए" इत्यादि भगवद् वाक्य में, रागियों के लिए कर्म का विधान किया गया हो सो बात नहीं है। अपितु कथन ये है कि-ज्ञान उससे भिन्न वस्तु है। "जनको ह वैदेहो" इत्यादि श्रुति से वैराग्य भाव संपन्न प्रसिद्ध जनक की जो कर्म में प्रवृत्ति दिखलाई गयी है, वह अधिकारी नहीं थे इस भाव से नहीं है। जनक के दृष्टान्त से निचिश्त होता है कि कम अंगी है और ज्ञान उसका अंग है। इसलिए ज्ञानवान को कर्म का अनुष्ठान करना चाहिए, ऐसा ही निश्चित होता है। इस मत का प्रसिवाद "अनुष्ठेयं बादरायणः साम्यश्र तेः" सूत्र से करते हैं। ज्ञान को अंग और कर्म को अंगी मानकर अनुष्ठान करना चाहिए इस पूर्व धारणा का बादराण प्रतिवाद करते हैं, श्रुति दोनों के लिए एक सा ही वर्णन करती है अतः दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं कोई बड़ा छोटा नहीं है। कर्म, स्वयं कोई पुरुषार्थ नहीं है, फलाकांक्षी को ही उसक अनुष्ठान करना चाहिए । 'एष नित्यो महिमा" इत्यादि श्रुति से, ज्ञानवान के संबन्ध में, प्रवृत्ति और निषिद्ध कर्म को फलजनकता नहीं होती अतः उसके लिए दोनों ही समान कहे गए हैं । ज्ञानीको फलार्थी की तरह प्रवृत्ति नहीं होती, ज्ञानी में फलार्थी को सी निष्ठा न होने से, कर्मोच्छेद प्रसक्ति की संभावना नहीं होती इसलिए ज्ञान को अंग नहीं कह सकते । ज्ञानी का कर्म वैसा ही होता है जैसे कि किसान ब्रीही को भून कर होता हो । ज्ञानी में प्रवृत्ति नहीं होती तथा अज्ञानी के लिए "इतरेदुःख मेवोपयन्ति" ऐसी निन्दा की गयी है। अतः सर्वार्थतत्त्वज्ञा श्रुति, ज्ञान से सर्वथा