________________
( ४६६) इत्याशंक्यं तत्रहेतुमाह: शंका करते हैं. कि-जब ब्रह्मविद का कोई विशेष नियम नहीं है तो एक के लिए कर्म करने को है, एक के लिए उसका त्याग करने को है, ऐसा निश्चय कैसे करेंगे ? इसका. हेतु कहते हैं
विभागः शतवत् ।३।४११।।
"एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति" इति श्र तेर्मानुषानन्दमारभ्य ब्रह्मानन्दपर्यन्तं मे गणिता आनंदास्ते सर्वे पुरुषोत्तमानंदात्मका एव । एवं सति येषु यावानानंदो दत्तोऽस्ति तावन्तं तं निरूपयन्ति अधिकार तारतम्येन, तद् दानमिति ज्ञापनाय शतो चरमानन्दं श्रुतियरूपयत् । अतएव पुरुषायुः संख्या समान संख्ययैवोत्कर्ष उक्तः तेन पुरुषधर्मस्याधिकारस्यैवोत्कर्ष सूच्यते । एवं प्रकृतेऽप्यन्य भावराहित्यतारतम्येन भगवद् भावतारतम्यमत्र त्वनुग्रह एवाधिकार रूप इति तदुत्वर्षे त्यागस्तदनुत्कर्षे नेत्यर्थः।
इसी आनन्द की मात्रा से अन्यान्य भूतों की मात्रायें उपजीवित हैं" इत्यादि श्र ति में, मानुषानंद से प्रारंभ करके ब्रह्मानंदपर्यन्त जिन आनंदों को गणना की गई, वो सब पुरुषोत्तम आनंदात्मक ही है । इस प्रकार अधिकार के तारतम्य से, जिसमें जितना आनंद दिया गया उसका उतना ही वर्णन किया गया है। उस दिये गये आनन्द को बतलाने के लिए श्रुति शत चरमानंद का निरूपण करती है। मनुष्य की चरमायु सो वर्ष की होती है उसी के अनुसार .सौ गुने क्रम से उत्कर्ष का वर्णन किया गया है। जिससे, मनुष्य धर्म के अधिकार का उत्कर्ष सूचित होता है। इसी प्रकार ब्रह्मवेत्ताओं के त्याग को बात भी है, जिनमें अन्य भाव का जितना अभाव होता है और भगवद् भाव का जितना विकास होता है उसी तारतम्यानुसार उसे भगवत्कृपा प्राप्त होती है 'उसके उत्कर्ष से त्याग होता है उसके अनुत्कर्ष से त्याग नहीं होता। . • अध्ययनमात्रवतः ॥३५॥१२॥ ।यदुक्तं "ब्रह्मिष्ठो ब्रह्म" इत्यादि, तत्र ब्रह्म शब्देन वेद एवोच्यते, न तु परस्तथाच तं ब्रह्मत्वेनाविकृत शब्द रूपत्वं ज्ञात्वा सततं तदध्ययन मात्रं यः करोति, नतु तेन किंचित् कामयते तस्याधिकारों ब्रह्मत्वात्विज्य इत्युच्यत इति न ब्रह्मज्ञानस्य कर्मशेषत्वम् प्रत्ययस्यातिशायनार्थकत्वादतिशयेन ब्रह्मरूपस्तदेव ‘भवतीति युक्त तस्य तदात्विज्यमेवं सति ब्रह्मपदं ब्राह्मण्यपरमपि संगच्छते ।