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( ४ ) वैराग्यातिशयात् उपनयनादेरप्यनपेक्षोच्यते । एवं सूत्र द्वयेन कर्माधिकार संपादकत्वेन ब्रह्मज्ञानस्य तच्छेषत्वं निरस्तम्। . .
अथवा यदि कहा जाय कि कम से प्राप्त संन्यासाश्रम में कर्म त्याग का तथा ग्रहस्थाश्रम में कर्म करने का नियम है, और उस ग्रहस्थ में कर्म के अंग रूप होने से, ब्रह्मस्वरूप का ज्ञान भी आवश्यक है, वह भी वेदांत से ही होता है, अतः कर्म शेषत्व कैसे नहीं है ? ऐसी आशंका करते हुए, सूत्रकार "न" से निषेध करते हैं, कहते हैं कि-"यदहरेव विरजेत" श्रुति और कर्माणि कुर्वीत न निविद्येत यावत्" इस भगवद्वाक्य से त्याग और वैराग्य की आश्रम विशेष में प्रयोजकता होने से, विशेष के अभाव में अप्रयोजकता भी निश्चित होती है । जहाँ कहीं भी कर्म करने का विधान है वहाँ ब्रह्मज्ञान की आवश्यकता पर बल नहीं दिया गया है, यही पूर्वसूत्र का भाव है। इससे यह भी निश्चित होता है कि-वेदाध्ययन आदि में भी ब्रह्मान का प्रयोजन नहीं है । शुकदेव के अत्यंत वैराग्य से उपनयन आदि की अनपेक्षा ज्ञात होती है। इस प्रकार दो. सूत्रों से कर्माधिकार को संपादकता से ब्रह्मज्ञान की, कर्म शेषता का निराकरण किया गया।
स्तुतयेऽनुमतिर्वा । ३।४।१४॥
अथ “अहिलतया ब्रह्मिष्ठ" इत्यत्र ब्रह्मपदेन पर एवोच्यत इति वदसि तत्रापि वदामः। “दर्शपूर्णमासावेतादृश्थै यत्र ब्रह्मविदाः तु इज्याधिकारी" इति तत् स्तुत्यर्थ ब्रमिष्ठो ब्रह्मत्यनेन ब्रह्मविदोऽप्यत्विज्ये अनुमितिः क्रियते, नतु तस्याधिकरित्वमभिप्रेतम् । उक्तानुपपत्तिभिः इत्यर्थः । ___ “अहिलतया ब्रह्मिष्ठ" वाक्य में ब्रह्मपद से पर का ही उल्लेख है तुम्हारे. इस कथन पर हम कहते हैं कि-"दर्शपूर्णमासावेतादृशौ" इत्यादि वाक्य की स्तुति के लिए "ब्रह्मिष्ठोब्रह्म" इत्यादि वाक्य से ब्रह्मविद के लिए भी यज्ञ की अनुमति होती है, उसमें अधिकारित्व अभिप्रेत नहीं है ।
कामकारेण चके । ३।४।१५॥
ननु "एषनित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न कर्मणावर्द्धते .वो कनीयात्" इति श्रुत्या ब्रह्मविदः कर्मकृत गुणदोषौ निसिद्धयेते। सच प्राप्तिपूर्वक इति ब्रह्मविदः कर्मकरण आवश्यकम् इति प्राप्तें-उच्यते कामकारेण इंति, करणं . कार,