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जो यह कहते हैं कि- आचार दर्शन से ब्रह्म की कर्म शेषता निश्चित होती है, सो बात भी संगत नहीं है क्योंकि उसी आचार दर्शन के तुल्य दूसरी बात भी देखी जाती है शुकदेव के तृतीय जन्म की तरह ब्रह्मविद ऋषियों के त्याग की बात भी देखो जाती है । ब्रह्मविद के कर्म त्याग और उसको कर्म शेषता की शंका कैसे कर सकते हैं, यही सूत्र से बतला के लिए हो त्याग विधि है, इस मत का भी इपो सूत्र से है, क्योंकि - युक आदि में तो वैसा नहीं देखा जाता ।
रहे हैं । कर्म में असक्तः निराकरण हो जाता
ननु “जनको ह वैदेह" इति श्रुति साहाय्यादाचार दर्शनं त्याग दर्शनादाधिक बलमित्यत उत्तरं पठति
यदि कहें कि - "जनको ह वैदेह" इस श्रुति से तो त्याग दर्शन से आचार दर्शन अधिक बलवान् प्रतीत होता है। इसका उत्तर सूत्रकार देते हैं-
असार्वत्रिकी | ३ | ४|१० ॥
ब्रह्मविदां सर्वेषामेतदाचारं चेन्निरूपयेच्छुि तिस्तदा त्वदुक्तं स्यान्न त्वेवम् । यत तादृशी श्रुतिब्रह्मवित्सु सर्वेषु न श्रूयते, तथाहि - " एतद् ह स्म वै तद् विद्वांस आहुः ऋषयः कावषयाः, किमर्था वयं अध्येषामहे, किमर्था वयं यक्ष्या
१ हम तत् पूर्वे विद्वांसोऽग्निहोत्रं न जुहुवांचक्रिरे एतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्य चरेति । एतावदरे खलु अमृतत्वम्" " इति होक्त्वा " याज्ञवल्क्यः प्रब्राजेत” इत्यादि श्रुतयो बह्व्यस्तदुद्विदां कर्मत्यागमेवानुवदंति अतस्त्याग पक्ष एक
बलवान् ।
सभी ब्रह्मवादियों का ऐसा आचार है, ऐसा श्रुति निरूपण करती है,. अतः तुम्हारा कथन ही ठीक नहीं है सभी ब्रह्मवादियों के लिए ऐसी श्रति नहीं है । " उन कावषेय विद्वान् ऋषियों ने कहा- 'हम किसलिए स्वाध्याय करें ?' किसलिए यज्ञ करें आज के पूर्व के विद्वानों ने अग्निहोत्र नहीं किया, इसलिए आत्मा को जानकर उन ब्राह्मणों ने पुत्रैषणा, लोकेषणा से उठकर भिक्षाचरण किया" इतने मात्र से ही अमृतत्व है" इत्यादि कहकर " याज्ञवल्क्य ने संन्यास लिया" इत्यादि अनेक श्रुतियाँ, ब्रह्मवेत्ता के लिए कर्म त्याग का ही उल्लेख करती हैं इसलिए त्याग पक्ष हो बलवान है ।
ननु ब्रह्मवित्त्वाविशेषेऽप्येकेषां कर्मकृतिरेकेषां तत्त्याग इति विभागः कुतः ?