________________
. "तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते" इत्यादि श्रुति फलारम्भ में विद्या और कर्म का साहित्य दिखलाती है, इससे भी विद्या के स्वातंत्र्य का निषेध होता है । • तद्वतो विधानात् ॥४॥४॥६॥. . . -: "ब्रह्मिष्ठो ब्रह्मादर्शपूर्णमासयोस्तंवृणीत". इति कल्प श्रु त्या ब्रह्मविदो ब्रह्मत्वेनवरणविधीयत इति ब्रह्म ज्ञानस्यात्विज्याधिकार संपादकत्वात् कर्मशेषवमेवेत्यर्थः। .." "ब्रह्मिष्ठ ब्रह्मा को दर्शपूर्णमास में वरण करो" इत्यादि कल्प श्रुति से, ब्रह्मविद् का ब्रह्मत्व रूप से वरण का विधान किया गया है इस ब्रह्मज्ञान के ऋत्विजाधिकार के संपादन से, ज्ञान की कर्मशेषता ही निश्चित होती है। . . ननु “यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रब्रजेत्, गृहाद्वा प्रबजेत्वनाद वा" इत्यादि श्रुतिभ्यो विहितत्वाविशेषात् कर्म तत्यागयोरैच्छिकोविकल्पो अंगीकार्यों अतो न शेषशेषिति भाव इत्यत उत्तरं पठति । . कहते हैं कि- “यदहरेवविरजेत्" इत्यादि श्रुतियों से तो संन्यास आदि को सामान्य कहा गया हैं, जिससे कर्म और उसके त्याग को ऐच्छिक विकल्प कहा जा सकता है, कर्म और ज्ञान में शेषशेषि भाव नहीं हैं । इसका उत्तर देते हैं। ..
नियमाच्च ।३।४७॥
"आश्विनं धूम्रललाममालभेत" यो दुर्ब्राह्मणः सोमपिपासेत् ऐंद्राग्नं पुनरुत्सृष्टमालभेत् या आतृतीयात् पुरूषात् सोमं न पिवेतू, विच्छिनो वा एतस्य सोमपीथो यो ब्राह्मणः सन्नातृतीयात् पुरुषात् सोमं न पिवति" यावज्जीवमग्निहोत्रंजुहुयात्' इत्यादि श्रुतिभ्यो यथा कर्मकरणे नियमः श्रयते, न तथा तत्त्याग इति नोक्त पक्षः साधुरित्यर्थः । चकरात् “नियतस्य तु संन्यासः कर्मणोनोप द्यते, मोहात्तस्य परित्यागः तामसः परिकोत्तितः" इत्यादि रूपा स्मृतिः समुच्चीयते । त्यागविधिरशक्त विषय इत्युक्तमिति प्राप्ते ।
"आश्विनं धूभ्रललाममालभेत्" यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहुयात्" इत्यादि श्र तियों से, यथाकर्म पालन के नियम का परिज्ञान होता है, कर्म के त्याग को तो कहीं भी चर्चा नहीं है, इसलिए उक्तपक्ष सही नहीं है । "जो कर्म के लिए प्रयास न कर मोहवश कर्म का त्याग कर देता है, उसका वह तामस,संन्यास