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( . ४८५ ) ‘कर्ममार्गीय उपासना के संबंध में निर्णय करके, ज्ञानमार्गीय उपासना के संबंध में विचार करते हैं-अथर्वोपनिषदों में जहाँ नृसिंह आदि को उपासना का विधान है वहाँ मत्स्यकूम आदि रूपों से भी स्तुति के वर्णन मिलते हैं जैसे कि-श्रीभागवत में ही “नमस्ते रघुवर्याय" इत्यादि स्तुति, अक्रूर ने, ब्रजनाथ श्रीकृष्ण को, को है । इस प्रकार रूप में भेद होते हुए भी, सभी अवतार समान हैं, इस भाव से एक ही रूप में अन्य रूपों का समाहार किया गया है अतः सभी रूपों की एकत्र उपासना भी सुसंगत है।
गुण साधारण्य श्रुतेश्च ।३।३।६४॥
ऐश्वर्यवीर्यादिगुणानां सर्वेष्वतारेषु साधारण्यं श्रूयते तेनर्मिधर्माणामैक्यात पूर्वोक्त साध्वित्यर्थः।
सभी अवतारों में, ऐश्वर्य वीर्य आदि गुण, सामान्य रूप से सुने जाते हैं, क्योंकि उनमें धर्मि धर्मों का ऐक्य रहता है, अतः वे भी सुसंगत हैं । २५ अधिकरण :
न वा तत्सह भावाश्रुतेः ॥३॥३॥६५॥
नन्वेवमुपासनं नित्यमुत वैकल्पिकमिति संशय उक्तरीत्या नित्यत्वे प्राप्ते तनिषेधमाह-नेति, किन्तु वा विकल्प एवैवमुपासन ऐच्छिकस्तत्र हेतुमाहसहभावाश्रुतिरिति, नियमतः तेषां रूपाणां सहभाव श्रवणं चेत् स्यात्तदा स्यात्तथोपासनस्य नित्यता न त्वेवमतो विकल्प एवेत्यर्थः ।
संशय होता है कि उक्त प्रकार की उपासना नित्य हैं या, वैकल्पिक ? दर्शपूर्ण आदि यज्ञों की तरह मानने से तो नित्य ही निश्चित होती हैं, इस मत का निषेध करते हैं कि-ये उपासनायें नित्य नहीं वैकल्पिक ही होती हैं । ये ऐच्छिक हैं, क्योंकि नियम से जहाँ उन रूपों का सहभाव सुना जाता है वहाँ तो उन उपासनाओं को नित्यता है, अन्यथा विकल्प है।
दर्शनाच्च ।३।३।६६॥
योऽपि रूपान्तर समाहारपूर्वकमुपास्ते सोऽप्येकं रूपमुपास्यत्वेन मत्वा तत्तथोपास्त इति फलं तस्यैकस्यैव रूपस्य दर्शनं भवति न तु सर्वेषामितोऽपि हेतोविकल्प एवेत्यर्थः एतद्दृष्टान्तेन यस्मिन् रूपे यादृक् धर्मवत्वं श्रयते तादृगधर्म