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भूम स्वरूपं श्रुत्वा "स भगत्रः कस्मिन् प्रतिष्ठित ?" इति प्रश्ने "स्वे महिम्नि" इत्युत्तरम् । तदर्थस्तु स्वीयत्वेन वृते भक्ते यो महिमं रूपः सर्वात्मभावः तस्मिन्निति स्वरूपात्मके महिम्नि इति वा । भगवदात्मकत्वात् सर्वात्मभावस्य । तदितरस्य साक्षात्पुरुषोत्तमाप्रापकत्वादस्यैव तत् प्रापकत्वात् परम'काष्ठापन्नमहित्वरूपोऽयमेव भाव इति महिम शब्देनोच्यते । स तु विप्रयोग भावोदये सत्येव सम्यग् ज्ञातो भवति व्यभिचारिभावः । ते त्वनियतस्वभावा इति ज्ञापयितुं त्रिविधाः । " स एवाधस्तात" इत्यादिना "आत्मैवेदं सर्वम्” इत्यन्तेन निरूप्य भूमप्रतिष्ठाधिकरण प्रश्ने सदुत्तरितं "स्वे महिम्नि" इति तमेवानुवघ्नाति, " स वा एष" इत्यनेन तच्छब्दस्य पूर्व परामशित्वात् । एवं सति त्वदुक्तमन्यत्राप्रतिष्ठितत्वं चेदिह प्रतिपाद्य स्यात् तदोक्तरीत्याऽनुबंध न कुर्यादहंकारादेशादिकं च न कुर्यादुक्त प्रश्नोत्तरं स्वाऽन्यवत्स्वभावान्न क्वापीत्येव वदेत् । तस्यादस्मदुक्त एव मार्गों ऽनुसर्त्तव्यः ।
नारद ने भूमा का स्वरूप सुनकर "भगवन् वह किसमें प्रतिष्ठित है" ऐसा प्रश्न किया, उत्तर मिला " अपनी महिमा में ।" उसका अर्थ है किआत्मीय रूप से वरण किये गए भक्त में जो महिमा रूप सर्वात्मभाव है, उसी स्वरूपात्मक महिमा में प्रतिष्ठित है । भगवदात्मक होने से ही सर्वात्मभाव की महिमा हैं । इस भाव के अतिरिक्त भाव पुरुषोत्तम के प्रापक नहीं हैं, यही भाव उनका प्रापक है, यही परमकाष्ठा को प्राप्त महिमाशाली है, यही भाव महिमा शब्द से कहा गया है । ये सर्वात्मभाव वियोगावस्था में ही व्यभिचारिभावों से अच्छी तरह व्यक्त होता है । वे भाव अनियत अपरिमित स्वभाव का हैं, इस बात को स्पष्ट करने के लिए 'एवाधस्तात्" इत्यादि से " आत्मैवेदं सर्वम्” तक उन्हें तीन प्रकार का निरूपण करके, भूम प्रतिष्ठा के अधिकरण के प्रश्न के उत्तर में “स्वे महिम्नि" कह कर उसी का अनुबंध किया गया है । " स वा एष" इत्यादि वाक्य से, तत् शब्द से पूर्व वस्तु का ही उल्लेख किया है । इस प्रकार आपकी अन्यत्र अप्रतिष्ठा की बात का भी प्रतिपादन हो जाता है । यदि उक्त रीति का अनुबंध नहीं स्वीकारते और अहंकार आदेश आदि को भी नहीं स्वीकारते तो उक्त प्रश्नोत्तर में "स्वान्यवत् स्व"भावात् न क्वापि " ऐसा उत्तर देते । इसलिए आपको हमारे कहे मार्ग का ही अनुसरण करना चाहिए ।
आदिपदात् त्रिविधा ये भावा उक्तास्तेषामपि स्वरूपमेवं पश्यन्न वंमन्वाएवं विजानन् इति क्रमेण यन्निरूपितं तदुच्यते । पूर्वं हि अति विगाढ़ भावेन