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लवाया-"है भगवन ! आपने बड़े सहज भाव से हमारे चित्त को हरण कर लिया, अतः हम घरों में रहकर भी घर के कार्य नहीं कर पातीं, हमारे हाथ शिथिल हो जाते हैं, अब आपके चरण कमलों को प्राप्त कर एक पैर भी नहीं चल सकती" इत्यादि । उस स्थिति में उन गोपियों को ज्ञान और क्रियाशक्ति का तिरोधान हो गया था, उस स्थिति की समाप्ति के बाद उनका स्पष्ट रूप से भाविर्भाव हो गया।
ननु सनत्कुमारनारदसंवादात्मकमेकं वाक्यम् । तत्रोपक्रमे 'मंत्रविदेवास्मि आत्मविच्छुतं ह्येवं ते भगवदशेभ्यस्तरति शोकमात्मविद् "इति" सोऽहं भगवः शोचामि" इत्यादिना स्वात्मज्ञानस्यैवोपक्रमादुपसंहारोऽपितमादायवोचितः। अनेचेद् आत्मपदानामीश्वरपरत्वं स्याद् वाक्य भेद उपक्रमविरोधश्च स्यात् । तस्माद् वाक्यानुरोधात, पूर्वज्ञान प्रकार विशेष एवायमिति मन्तव्यम् इत्यत उत्तरं पठति -
सनत्कुमारनारद संवाद एक पूरा वाक्य है-उसके उपक्रम 'मैं मंत्र का ज्ञाता हूँ" इत्यादि और "सोऽहं भगवन् शोचामि" इत्यादि उपसंहार को स्वात्म ज्ञान के अनुसार उचित रूप से प्रस्तुत किया गया है। यदि आगे आत्म पद को ईश्वर परक मानें तो वाक्य भेद और उपक्रम से भिन्नता होगी, इसलिए वाक्य की एकता की दृष्टि से पूर्व प्रकार विशेष को मानना ही उचित है, इस कथन का उत्तर सूत्रकार देते हैं
श्रुत्यादिबलीयस्त्वाच्च न बाधः ।३।३।४।।
नैवं वाक्यानुरोधावरणेन सर्वात्मभावलिंगभूयस्त्वं बाधितव्यं । वाक्या'पेक्षया श्रुतिलिंगयोर्बलीयस्त्वात् । एतद्बलीयस्त्वं तु "श्रुतिलिंगवाक्य प्रकरण स्थानसमाख्यानां समवाये पारदौर्बल्यम्" इति जैमिनीयसूत्रसिद्धम । प्रकृत इतर साधन निषेध पूर्वकं "यमेवैषवृणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा वृणुतेत - स्वाम" इति श्रुतिर्वरणलभ्यत्वमाह । एतदनेच "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः" "इत्युपक्रम्य" एतरुपायर्यतते यस्तु विद्धांस्तस्यय आत्मा विशते ब्रह्म धाम" इति श्रुतिः पठ्यते । एतच्च, विद्यैव तु निद्धोरणादित्यत्र निरूपितम् ।
कहते हैं कि इस प्रकार वाक्य के आधार पर, सर्वात्मभाव सूचक वरण की बहुलता में कोई बाधा नहीं आती। वाक्य की अपेक्षा श्रुति और लिंग