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( ४६४ ) त्वेव विजिज्ञासितव्यः' इति । अक्षर पर्यन्तं गणितानन्दत्वात् पुरुषोत्तमस्यैवानंदमयत्वेन निर्धारणादित्यर्थः। भूम्नो लक्षणमने उच्यते । “यत्रनान्यत् पश्यति' इत्यादिना । यस्मिन् सति नान्यत् पश्यतीत्यर्थः । तथा सति सर्वात्मभाववतः प्रभुदर्शने सत्यपि लीलोपयोगिवस्तुदर्शनादिक मनुपपन्नमिति शंका तु "तस्य हवा एतस्यैवं पश्यत् एवं मन्वानस्यैवं विजानत आत्मनः प्राणाः" इत्यादिना निरस्ता वेदितव्या । तैः सह लीलां चिकीर्षतः प्रभुत एव सर्व संपद्यते, नतु भक्तसामर्थ्य नेति भावेन तदुक्तेः । ___उक्त विषय में सूत्रकार हेतु बतलाते हैं-"निर्धारणात्' अर्थात् - "सुख को ही विशेषरूप से जानना चाहिए" इत्यादि कहकर सुख का स्वरूप बतलाते हैं कि-"जो भूमा है वहीं सुख है, अल्प में सुख नहीं है, भूमा ही सुख है अतः भूमा को ही विशेषरूप से जानना चाहिए" इत्यादि । उक्त प्रसंग में अक्षर पर्यन्त आनंद की गणना करते हुए, पुरुषोत्तम का ही आनंदमय रूप से निर्धारण किया गया है । “यत्रनान्यत पश्यति" इत्यादि से आगे भूमा का लक्षण बतलाते हैं। जिस स्थिति में पहुँच कर उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखता । शंका होती है कि-सर्वात्मभाव रूप प्रभु के दर्शन हो जाने पर भी लीलोपयोगी वस्तु का दर्शन तो होता नहीं ? इस शंका का निराकरण "तस्यह वा एतस्यैवं पश्यत्" इत्यादि वाक्य ये जान लेना चाहिए । उन भक्तों के साथ लीला के इच्छुक प्रभु यों सब कुछ कर लिया करते हैं, भक्त के सामर्थ्य से कुछ भी होना संभव नहीं हैं। यही "नस्य ह बा एतस्य' इत्यादि वाक्य का तात्पर्य है।
दर्शनाच्च ।३।३।४८॥
दृश्यते च सर्वात्मभाववतां भक्तानां ब्रजसीमान्तनी प्रभृतीनां पूर्व मितरविस्मृतिभंगत्स्पर्शादिनाने सर्वसामर्थ्य मितिव्यासः स्वानुभवं प्रमाणत्वेनाह । उक्तच -श्री भागवते ताभिरेव-"चितंसुखेन भवतापहृतं गृहेषु यनिर्विशत्युत करावपि गृह्य कृत्ये, पादौपदंनचलतस्ववपादमूलात" इत्यादिना । तेनज्ञानशक्ति क्रियाशक्ति तिरोधानमुक्तं भवति, अग्रेतदाविर्भावादिकं स्फुटमेव ।
सर्वात्मभाव वाली ब्रजगोपियों में, भगवत्स्पर्श आदि से पूर्व वृतान्तों की विस्मृति जन्म आत्मविभोरता और सर्वसामर्थ्य आदि को भगवान व्यास जी ने स्वयं समाधि में अनुभव करके जो भागवत में गोपियों के मुख से ही कह