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. ( ४७७ ) "इत्यादि वचनों से यजमान ही वरण करता है । यदि इस रूप से पृथक्-पृथक् "वरण न हो तो प्रायः यज्ञ में सम्मिलित सभी विद्वान् सब कर्मों के ज्ञाता और पटु होते हैं, वे सभी मिलकर सब कर्मों को करने की चेष्टा करें, जिससे नियमित कार्य न हो सके और अव्यवस्था हो । अतः उन उन स्थानों पर यजमान ही अपनी इच्छा से वरण करता है । उस समय वे सब, अपनी इच्छानुसार सब शाखाओं के विहित अंगों का प्रयोग नहीं कर सकते, वे यजमान के वरणी होने से संयमित प्रयोग ही करते हैं । प्रत्येक वेद में, होता, ऋत्विग, अध्वयु आदि के यजुष औद्गात्र साम आदि नियमित अंग होते हैं । तथा अलौकिक वैदिक कर्म में, जीव की इच्छा भी नियामिका होती है । इधर-उधर की बात करने से क्या लाभ, उस परमात्मा के प्रतिरोम कूप में अमित ब्रह्माण्ड स्थित हैं उस परमात्मा की इच्छा ही उन उन साधनों और फल संपत्ति में, वास्तविक नियामिका होती है। - मंत्रादिवद्वाऽविरोधः ।३।३॥५६॥
ननु पूर्व कर्मज्ञान निष्ठानामपि भक्तिमार्गीयत्वं यत्र भवति तत्र तथैत्र 'भगवद्वरणमिति हि सिद्धान्तः । ऋत्विजस्त्वेकस्मिन् याग एकत्र वृतस्य नापरत्रापि तथेति विरुद्धो दृष्टान्त इत्यरुच्या निदर्शनान्तरमाह- यथैक एव कश्चिन्मन्त्रो बहुषु कर्मसु संबध्यते, कश्चिद् द्वयोः, कश्चिदेकत्रव तथैव विधानात् तथात्रापोत्यर्थः। आदि पदात् कर्मोच्यते यत्र काम्येनैव नित्यकर्म निर्वाह स्तत्र कामितार्थ साधकत्वे प्रत्यवाय परिहारे अप्येकमेव तदुपयुज्यते । तथा च सर्वतोमुखेऽनेक होतृप्रवरेऽध्वयु प्रवरे च गृह्यमाणे, "देवाः पितरः" इत्यादिना यजमानकर्तृकाऽनुमंत्रणमेकमेव सर्वत्र संबद्धयते । तथैव विधेयस्तथात्रापि तावद् विधं यदेकमेव वरणं तेन तत्तन्निष्ठाऽनन्तरं भक्ति निष्ठेति न दृष्टान्त विरोध इत्यर्थः । अथवा ओमृत्युदाहृत्यैव मंत्राणामुच्चारणान्मंत्रादिरोंकारः। स यथा ब्रह्मात्मकत्वेनैक एव सर्वमंत्रेषु संबड्यते, तथा वरणमपीति तथेत्यर्थः । यद्यपि इतर निष्ठानन्तरभूत भक्ति निष्ठावतोऽपि वरणं तथाभूतमेकमेवेति नोक्तदोषस्तथाऽप्युत्कृष्टमार्गे वृतस्य नीचकक्षापादनमनुचितमिति मत्वा पक्षान्तरमुक्तम् । वस्तुस्तु साधन मर्यादया यत्र भक्तिदित्सिता तत्र तथेति नानुपपत्तिः काचित् ।
पूर्व सूत्रों में ये सिद्धान्त निश्चित हुआ कि—कर्म ज्ञान निष्ठ व्यक्ति भी जब भक्तिमार्गीय हो जाते हैं, तभी उनका भगवद् वरण होता है । एक यज्ञ में, ऋत्विज एक ही जगह वरणी होता है अन्यत्र नहीं हो सकता, ये दृष्टान्त तो उक्त सिद्धान्त के अनुसार विरुद्ध है ? इस पर दूसरा निदर्शन प्रस्तुत करते हैं