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( ४०) ‘च त्वदुक्त भावसंबंधिव्यभिचारिभावाः श्रयन्ते "सैव सर्वत्र स एव सर्वन" इति । एवं सति लौकिक सधर्मवत्वान्न त्वदुक्तभावस्य अलौकिक ज्ञानादिभ्य आधिक्यं वक्तुं शक्यमलौकिक विषयत्वाल्लौकिकत्वमपि न तथेति भवति 'संशयः । तत्र मनुजत्वरिपुत्वादिज्ञानानामिव कामादिभावेन स्नेहभावस्यापि संभवान्नास्यालोकिकत्वमिति पूर्व, पक्षः। सिद्धान्तस्त्वस्य लौकिकेभ्योज्यायस्त्वं मन्तव्यम् । - सर्वात्मभाव में तो विप्रयोग जन्य 'दुःख की भी अनुभूति होती है, यदि भूमा को, वही मान लें तो, उसे सर्वाधिक श्रेष्ठ कैसे कहा जा सकता है ? इस 'शंका का परिहार करते हैं-कि भूमा को सर्वात्म मानकर ही सबसे श्रेष्ठ
माना जा सकता है, उसके विषय में असंभावना के सम्बन्ध में की गई शंका के • परिहार के लिये सूत्रकार उदाहरण देते हैं कि-जैसे यज्ञ में सर्वाधिकता है .. वैसे ही यहाँ भी है । तैत्तरीय उपनिषद् में दर्शपूर्णमास के प्रकरण में आता है .कि-"परमेष्ठी ने ही इस यज्ञ को पहिले किया था जिससे ये परकाण्ठा को ‘प्राप्त हो गया “जो इसे जान कर इस दर्शपूर्णमास का यजन करता है वह विद्वान पराकष्ठा को प्राप्त होता है" इत्यादि । जैसे इस दर्शपूर्णमास को, ब्रतांदि दुःखात्मक नियमों के होते हुये भी पराकाष्ठा फल वाला सब यज्ञों से श्रेष्ठ कहा गया है, वैसे ही विप्रयोग जन्य दुःख होते हुये भी उपस्थिति में एक • अपूर्व पुरुषोत्तम साक्षात् रूप विपुल आनन्द प्राप्त होता है इसलिए उसे विपुल सुख रूप कहा गया है इसीसे उसे अन्य सब से श्रेष्ठ मानना चाहिये । इस सम्बन्ध में सूत्रकार पुष्टि करने के लिये कहते हैं-"तथाहि दर्शयति" अर्थात् श्रति भी "वही नीचे है" इत्यादि कह कर उसके लिये अहंकारादेश आत्मादेश आदि का उल्लेख करती हुई उसी आत्मा के लिये प्राण आशास्मर आदि 'सब कुछ बतलाती हैं, ये सारी बातें सर्वात्मभाववान में ही सम्भव है मुक्त जीव में नहीं । क्यों कि-मुक्ति अवस्था से वृत्तिभेद और प्राण आदि का 'अभाव रहता हैं । इसे जीवन्मुक्ति दशा भी नहीं कह सकते क्योंकि इस दृश्य में प्राक्तन कम की स्थिति रहती है अतः "आत्मनः प्राणः" ऐसा कहना संभव नहीं है। .
यदि कहें कि-जैसे लोक में शृंगाररस भाव वाले स्त्री पुरुष भी, सर्वात्मभाव की तरह, अपने प्रेमास्पद को ही सब जगह देखते हैं, वह भाव भी इस लौकिक भाव के ही समान है, उसे अलौकिक ज्ञान आदि से अधिक नहीं कह -सकते, अलौकिक विषय वाला होकर लौकिक की तरह होना सम्भव नहीं है,