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( ४८२ ) एतस्यैवं पश्यत्" इत्यादि । इसके पहिले भी “स वा एष एवं पश्यत्" स आत्मरति आत्ममिथुन आत्मक्रीड आत्मानन्दः स स्वराड् भवति सर्वेषु लोकेषु। कामचारो भवति" इत्यादि श्रुति भी है । उक्त विशेषतायें लोक में संभव नहीं है आत्मपद भगवत्वाचक है, सर्वोत्तम विषयक भाव का ईश्वरत्व ही युक्त है । २० अधिकरण:
नाना शब्दादि भेदात् ।३।३।५८॥ .
पूर्वाधिकरणैः सर्वात्मभावस्वरूपादिनिर्णयं कृतवान् । अथ मत्स्यादिरूपाणां भगवदवतारत्वमविशिष्टमिति सर्वेषां समस्योपासना कार्येति पार्थक्ये नेति विचारयति । अत्रोपास्याभेदेऽपि रूपभेदादेकत्रोपासकस्यान्यत्रानुपासनलक्षणावज्ञासंभवादस्या अप्यसिद्धि संभवादपि समस्यैव स कार्येति प्राप्ते सिद्धान्तमाहसर्वेष्वतारेषु नानवोपासना कार्या । तत्र हेतुः, शब्दादिभेदादिति । तत्तत्स्वरूपवाचक · शब्दानां मंत्राणां चादिपदादाकारकर्मणां च भेदादित्यर्थः । एतेनैव मिथोविरुद्धानामाकारकर्मणां एकत्र भावनस्याशक्यत्वमयुक्तत्वं चेति भावः सूचितः।
पूर्व के अधिकरणों से, सर्वात्मभाव के स्वरूप आदि का निर्णय किया गया। अब विचार करते हैं कि-मत्स्य आदि भगवान के सामान्य अवतारों को सामूहिक उपासना करनी चाहिए या पृथक्-पृथक् करनी चाहिए । इनके सबके रूप भिन्न हैं, जबकि-उपास्य तत्त्व एक ही है, एक की उपासना करने से दूसरे की उपासना में व्यवधान आ सकता है क्योंकि-सबकी उपसना की प्रणाली भिन्न है, अतः जरा भी चूक हो जाने पर अवज्ञा हो सकती है, जिससे बजाय लाभ के हानि होगी, इसलिए सबको एक साथ उपासना करना ही युक्त है, इस मत पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि सभी अवतारों में भिन्न-भिन्न उपासना करनी चाहिएं । सभी के स्वरूप के वाचक भिन्न-भिन्न मंत्र और भिन्न-भिन्न आकार तथा कर्म हैं । आकार और कर्म जब भिन्न हैं तो उनकी एक साथ कैसे संभव है, ऐसा करना असंगत ही होगा । २१. अधिकरण :
विकल्पोऽविशिष्ट फलत्वात् ।३।३।५९॥ .. पार्थक्येनोपासनानि कर्तव्यानि इति स्थिते विचार्यते, - किंमग्निहोत्रदर्शपूर्ण.