________________
( ४७२ ) की, "आत्मन एवेदं सर्वम्" पूर्वोक्त श्रुति वाक्य की तरह, तद्विधता प्रतीत होती है, इसलिए अनेक संबंध की बात नहीं कह सकते । संशय करते हैं कि"आत्मन एवेदं सर्वम्" इस पूर्व श्रुति वाक्य में जो कह चुके थे उसे ही पुनः कहना तो पुनरुक्ति दोष है। उसका उत्तर देते हैं-"भूयस्त्वाद् हेतोः" अर्थात् उक्त अर्थ में अनेक हेतु हैं इस बात की पुष्टि के लिए, पूर्वकथित अर्थ को पुनः श्लोकानुबंधित किया गया है । भूयः पद अधिकता का भी द्योतक है। स्वकृत साधन साधित फल की अपेक्षा से, स्वयं उद्योग करने से साधित फल में निरन्तर उत्कर्ष होता जाता है, इस बात को बतलाने के लिए भगवान व्यास देव ने अर्थ की पुनरुक्ति की है। • एक आत्मनः शरीरेभावात् ॥३३॥५३॥
उक्त ऽर्थे श्रुत्यन्तरसम्मतिमप्याह-एकेशाखिनस्तैत्तरीयाः शरीरे, भक्त शरीरे हृदयाकाश इति यावत् तत्रात्मनो भगवतोभावाद्, आविर्भावाद् तेन सह सर्व कामोपभोगं वदन्तीं श्रुति पठन्ति-"सत्यंज्ञानमनन्तं ब्रह्म, योवेद निहितं गुहायां परमेव्योमन् सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता" इति अत्रोपक्रमे "ब्रह्मविदाप्नोति परम " इति श्रुतिरक्षर ब्रह्मविदः परब्रह्म प्राप्ति सामान्यत उक्त्वा, विशेषतः कथनार्थ “तदेषाऽभ्युक्ता" इति वाक्यं तद् ब्रह्म प्रतिपाद्यत्वेनाभिमुखीकृत्यैषा वक्ष्यमाणा ऋक् परब्रह्मविद्भिरुक्त त्युक्त्वैवमुक्तवती सत्यं ज्ञानमिति । परब्रह्मस्वरूपं अनुभवैव वेधं न शब्दादिभिवद्य इति ज्ञापनाय स्वयं तत् तत्व प्रतिपादिका अप्यन्यमुखेन उक्तवती । अत्र ब्रह्मणासह सर्वकामोपभोग उक्त इत्येतदेकवाक्यतायै "सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति" इति । श्रुतेरप्युक्त एवार्थो मन्तव्यः ।
उक्त अर्थ में दूसरी श्रति की सम्मति भी है, इस भाव से “एक आत्मनः" आदि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । सूत्र का तात्पर्य है कि तैत्तरीय की एक शाखा में शरीर के हृदयाकाश में परमात्मा के आविर्भाव होने पर वह भक्त उन परमात्मा के साथ समस्त कामनाओं का भोग करता है, वह श्रुति इस प्रकार है-"ब्रह्म, सत्य ज्ञान और अनन्त रूप है, जो अपनी हृदयस्थ गुहा के परमाकाश में उसको जानता है, वह बुद्धिमान ब्रह्म के साथ समस्त कामनाओं का भोग करता है।" इस प्रसंग के उपक्रम में "ब्रह्मविदाप्नोति परम् "इत्यादि श्रुति, अक्षर ब्रह्मविद् की परब्रह्म प्राप्ति, सामान्य रूप से बतलाकर विशेष • प्राप्ति को बतलाने के लिये "तदेषा अभ्युक्ता" इत्यादि उस ब्रह्म को प्रतिपाद्य