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'(४६६ ) बलवान होता है, इसकी बलवत्ता तो "श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान, इत्यादि के विवेचन में पूर्व की अपेक्षा पर दुर्बल होता है "इत्यादि जैमनीयः सूत्र से सिद्ध है । उक्त प्रसंग में इतर साधनों का निषेध करते हुए “यमेवैष वृणुते" इत्यादि श्रुति वरणलभ्यता बतलाती है। इसके आगे "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः" इत्यादि उप क्रम करके "एतरुपायर्यतते" इत्यादि श्रुति कही गई है, इसका निरूपण "विद्यैव तु निर्धारणात्" सूत्र में कर चुके हैं ।
अपरंच-"नात्मविद् तरति शोकमात्मविद्” इति नारदवाक्यानुवादयोरात्मपदमुत्तमप्रश्नात्मकेन लिंगेन पुरुषोत्तम परमिति ज्ञायते । सहि सर्वेभ्य उत्तमोऽतो ब्रह्मेत्युपास्यत्वेन सनत्कुमारोक्त प्रतिरूपं ततस्ततो भूयोऽस्तीत्य पृच्छत् । अन्ते सर्वाधिकत्वेन सुखात्मकत्वेन भूमानं श्रुत्वा तथा नापृच्छत् किन्तु तत्प्राप्त्यर्थम् । अत्या. “कस्मिन् प्रतिष्ठित" इत्यपृच्छत् । तदा सर्वात्मभाववत् स्वेव प्रतिष्ठित इत्याशयेन सर्वात्मभावलिंगात्मकं भावं "स एवाधस्ताद्" इत्यादिनोक्तवान् ।
"नात्मविद् तरति" इत्यादि नारद वाक्य के अनुवाद के रूप में प्रयुक्ता आत्म पद, उत्तम प्रश्नात्मक लिंगवाची होने से पुरुषोत्तम परक ज्ञात होता है । वह सर्वोत्तम है, अतः ब्रह्म है और उपास्य है, ऐसा सनत्कुमार के कहने पर नारद ने "भूयोऽस्ति ?" ऐसा प्रश्न किया । अन्त में सर्वाधिक और सुखात्मक भूमा की महिमा को सुनकर फिर वैसा प्रश्न नहीं किया, अपितु उस को प्राप्त करने के लिए अति आत्त भाव से पूछा कि-"वह किसमें स्थित है ?" तब सर्वात्मभाव को तरह स्वयं में स्थित है, इस आशय से सर्वात्मभाव लिंगात्मक भावपूर्ण “स एवाधस्ताद्" इत्यादि उत्तर ऋषियों ने नारद को दिया।
नन्वेतया श्रुत्या न सर्वात्मभाव लिंगात्मको भाव उच्यते, किंतु व्यापकत्वेन सर्वरूपत्वेन स्वभिन्नाधिकरणाभावादन्यत्रा प्रतिष्ठितत्वमेवोच्यत् इत्यत उत्तरं पठति
- " यदिकहें कि इस श्रुति से सर्वात्मभाव लिंगात्मकभाव नहीं प्रकट होता अपितु व्यापक और सर्वरूप होने से, अपने से भिन्न अधिकरण का अभाव रूफ आत्म प्रतिष्ठा का भाव प्रकट होता हैं इसका उत्तर देते हैं. अनुबंधाविम्यः प्रशान्तर पृथक्त्ववत् दृष्टश्च तदुक्तम् ।।३।५०॥